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यदास्तिलकचम्पूकाव्ये
समासादितसाम्राज्यसभानसारात्संसाराद्विरम्य मनोज्ञविजय प्राम्यां प्रवस्यामासज्य प्रबुद्ध सिद्धान्तहृदयो मगधविषये सोपारपुरपर्यन्तानामिगिरिनाम्नि महोबरे सम्यग्योगात पनयोगबरो' बभूव ।
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तदनु सा वियोगातङ्कत चित्ता यज्ञवत्ता तवन्तेवासिम्यः सोमदत्त व सभ्य तिफर मात्मखेवकरमनुभूय प्रसूप समये स्तनंधमं पुनस्तमावाय प्रयाय च तं भूमिभूतम् 'अहो कूटकपटपटक सम्मनो वनवादा व पाचक निःस्नग्ध, विष, वीमं विगम्बर प्रतिच्छन्नमवन्धि स्वच्छागच्छसि तदागच्छ नो चेद् गृहाणनमात्मनो नन्दनम् इति व्यस्यास्यो 'शोभंगवतः पुरतः शिलातले बालकमुत्सृज्य विजहार तिज निवासम् । भगवानपि तेन सुसेन बुषक: प्लोपोर कस्वा द्विष्टरीकृत वरगवर्गः ११ सोपसर्गस्यंवावस्थे
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अत्रान्तरे सचराचरसंचरत्वे च रोचरणाल तक रक्तरत्प्रस्प विजयातटीनस्य २५ दयिताविरविद्याधरौ विनोदविहारपरिमलितकान्तारघरण्यामुत्तरन्याममरावतीपुरीपरमेश्वरः सुमङ्गलालावर प्रकामं १३ निखातारा ि कान्ताशोकशङ्कुस्त्रिशङ्कुर्नाम नृपतिः समराबसराभिस ररसपत्नसंताना वसान "सारशिलीमुखविचराय राज्यसुखमनुभूय जिनागमा चबगत संसारशरोरभोग राम्पस्थितियं तिनुं भूषभू गो घरसंचाराय हेमपुरेश्वराव समस्तमहीदामात्यशासनाय स्वप्न- राज्य सरीखे सारवाले ( निस्सार ) संसार से विरक्त होकर ऐसी जिनदीक्षा ग्रहण की, जिसमें कामदेव के विजय को प्रचुरता वर्तमान है,
बाद में वह समस्त सिद्धान्तों के रहस्य का ज्ञाता होकर ममघ देशवर्ती 'सोपारपुर' नामक नगर के समीपवर्ती तेजवाले 'नाभिगिरि' नाम के पर्वत पर भले प्रकार धर्मध्यान संबंधी आतपन योग का घरक हुआ ।
इसके बाद अपने पति के वियोग को दारुण व्यथा से नष्ट चित्तवाली यज्ञदत्ता ब्राह्मणों ने शिष्यों से अपने लिए खेदजनक सोमदत्त के दीक्षा ग्रहण का समाचार खाना और नौ महीने के अन्त में बच्चे का प्रसव किया और उसे लेकर इसी पर्वत पर पहुँच कर अपने दीक्षित पति से बोली- 'अरे कूट-कपट के समूह और मेरे मनरूपी वन को भस्म करने के लिए दावानल अग्नि-सरीखे एवं निःस्नेही मूर्ख ! यदि इस दिगम्बर (नग्न) वेष को छोड़कर अपनी इच्छानुसार आते हो तो आओ, नहीं तो अपने इस पुत्र को ग्रहण कर ।' ऐसा कहकर बहु ऊँचे घुटनों वाले ( खड़े होकर ध्यान करनेवाले ) मुनि के सामने शिलातल पर बच्चे को छोड़कर अपने निवास स्थान पर चली गई। शिला के विशेष दाह से कलुषित होने से मुनि के दोनों पैर बच्चे के आधारभूत थे और मुनि भी उस बच्चे से उपसर्ग- सहित हुए पूर्व की तरह ध्यानारूढ़ होकर खड़े हुए थे |
इसी बीच में ऐसे विजयार्ध पर्वत की, जिसका मध्य भाग साथ-साथ गमन करने वाले सेवकों के साथ संचार करने वाली विद्याधरियों के चरणों में लगे हुए लाक्षारस से लाल है, उत्तर श्रेणी में, जिसकी वनभूमि समीपवर्ती पतिवाली विद्याधरियों के आनन्दजनक बिहार से सुगन्धित है, अमरावती नामकी नगरी का स्वामी, सुमङ्गला रानी का पति और शत्रु स्त्रियों के हृदय में विशेष रूप से शोकरूपी कीला गाड़ने वाला त्रिशंकु नामका राजा राज्य करता था, जिसके बाण युद्ध के अवसर पर सामने आ रहे शत्रु समूह का ध्वंस करने में अव्यर्थ थे, उसने चिरकाल पर्यन्त राज्य-सुख का उपभोग करके जैन सिद्धान्त से संसार, शरीर व पंचेन्द्रियों के भोगों से वैराग्य-स्थिति का अनुभव किया । अतः मुनि होने के इच्छुक हुए उसने ऐसे बल
१. गृहीत्वा । २. सेजसि । ३. ध्यान | ४. नत्र मासावसाने । ५. पर्वतम् । ६. मंडल 1 ७. रूपं । ८. मुक्त्वा । जानो । १०. दाह । ११. शिश्वोसधारी भूतपादः । १२. समापकान्त । १३. दाटिककीलकः । १४. मरण ।
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