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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
टिपिनि
कर्णकटुमालापमाकर्ण्य प्रबुद्धकोधः कराभ्यां तरवर्धनार्थं कथं मलितवान् । अमरवरौ विकिरावप्युटी संनिविश्य पुनरपि तं तापसमसोहलालापो निकाममुपजहसतुः । तापसः साध्वस विस्मयोपसृतमानमः 'लौ खलू पक्षिण मतः । किं तु रूपान्तरावुमा महेश्वराविव कौचिद्देवविशेषौ । तदुपगम्य प्रणम्य च पृच्छामि तावदात्मनः पापकत्यकारणम् । अहो मत्पूर्वपुण्य संपादितावलोकन दिव्यविजोर समान्ययसंभव सचनपराङ्गमिथुम, कययतां भवन्तौ कथमहं पावकम' इति । पतत्रिणी 'सपस्थिन्, आकर्णय ।
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अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव व नंव च । तस्मात्पुत्रमुखं वृष्ट्वा पश्वाद्भवति भिक्षुकः । १५५ ।। तथा - अधोत्य विधिवद्वेषान्पुत्रांश्चोत्पाद्य युक्तितः । इष्ट्वा ययंपाकालं ततः प्रवजितो भवेत् ॥ १५६ ॥
इति स्मृतिकारकीर्तितमप्रमाणीकृत्य तपस्यसि' इति । कथं तहि मे शुभाः परलोका:' । 'परिणयनकारणाबीरसपुत्रोत्पादनेन' | 'मित्र दुष्करम्' इत्यभिषाय मातुलस्य विजयामहादेवीपतेरिन्द्रपुरेश्वर्य भाजः काशिराजस्य भूभुजो भवतभाग्भूत्वा तदुहितरं रेणुकां परिणीयाविरलकलापो लुपालं कृतपुलिनास राजे मन्दाकिनीफूले महवाथमप संपाच परशुरामपिताभूत् ।
भवति धात्र श्लोकः
उनके इस कर्ण कटु वार्तालाप को सुनकर जमदग्नि तपस्वी का क्रोध भड़क उठा अतः उसने पक्षियों को पौडित करने के लिए दोनों हाथों से अपनी दाढ़ी मसली, तब दोनों भूतपूर्व देवता पक्षी भी उड़कर उसके आगे वर्तमान वृक्ष पर जा बैठे और पुनः स्पष्ट वचन बोलते हुए उस ऋषि की विशेष हसी मजाक उड़ाने लगे । [ यह देखकर ] तापसी का मन भयभीत व आश्चर्यान्वित हुआ, अतः उसने विचार किया - निस्सन्देह ये दोनों पक्षी नहीं हैं किन्तु दूसरा वेष धारण किये हुए पार्वती व शिव-सरीखे कोई देवता हैं, अतः इनके पास जाकर व प्रणाम करके अपने पापी होने का कारण पूँछु ।'
[ यह सोचकर उसने उनके पास जाकर कहा---] 'मेरे पुण्योदय से प्राप्त हुए दर्शन वाले और दिव्य व उत्तम पक्षियों के वंशरूपी उत्पत्तिगृह वाले हे पक्षियुगल ! कहिए कि मैं कैसे पापी हूँ ?"
पक्षि-युगल तपस्वी ! सुनो-स्मृतिकारों ने कहा है कि पुत्र रहित मनुष्य की सद्गति नहीं होती और न वह स्वर्ग प्राप्त करता है, इसलिए पुत्र का मुख देखकर पश्चात् भिक्षुक होना चाहिए। विधिपूर्वक वेदों का अध्ययन करके और युक्ति पूर्वक पुत्रों को उत्पन्न करके और यथाकाल यज्ञ संबंधी क्रिया काण्ड द्वारा पूजा करके पश्चात् तपस्वी होना चाहिए ।। १५५-१५६ ॥
किन्तु तुम स्मृतिकार के उक्त कथन को प्रमाण न मानकर सप करते हो ।' 'तो मेरे परलोक कैसे शुभ हो सकते हैं ?" 'विवाह करके औरस पुत्र के उत्पन्न करने से ?'
'यह क्या कठिन है' – ऐसा कहकर जमदग्नि तपस्वी ने सरीखे ऐश्वर्य का सेवन करनेवाले अपने मामा काशीराज नाम के नाम की दुहिला के साथ विवाह संबंध कर लिया और घने पत्र व प्रदेश से व्याप्त गङ्गा नदी के तट पर वर्तमान महान् आश्रम स्थान प्राप्त करके परशुराम के पिता हो गए । इस विषय में एक श्लोक है उसका अर्थ यह है
विजया नाम की महादेवी के पति स्वर्गराजा के महलों में जाकर उनकी रेणुका तृणविशेषों से अलंकृत और बालुकामय
१. पक्षिणी । २. मोहलः क्तः स्फुटवचतौ । ३. भय 1 ४ पनि । ५. कलापाः पत्राणि । ६ उपस्तुणविशेषः ।