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पाठ आश्वासः
२३५ जोन रिझातालाप ! अन्तस्तस्वविहीमाना प्रक्रियेयं विराजते ॥१७१।।
को वेवः किमिदं ज्ञानं कि तत्वं कस्तपःकमः । फो बन्धः कश्य मोसो वा यत्तवं न विद्यते ॥१८॥ आप्लागमाविशुद्धत्वे त्रिया शुद्धागि देहिषु । नाभिजात'फलानाप्य विजातिष्विव जायते ॥१८॥ तत्संस्तवं प्रशंसा वा न कूर्चात कुष्टिषु । "मानविशा'नमोस्तेषां विपरिसन्न व विषमेल ॥१८२१३
भूयतामत्रोपाध्यानम्-मुक्ताफलमञ्ज विराजितविलासिनीकर्णकुण्डलेषु पाण्डशमण्डलेषु पोरपुण्याचारविरितदुरितविपरार्मा" रक्षिणमथुरायामशेषतपारा वारपारगमवषिषोधाम्युषिमन्यसाधितसकलभुवनभागम्,
"अष्टाङ्गमहानिमित्तसंपतिसमषिकषिषणाधिकरणम्, असिसभमणसंघसिहोपात्यमामबरणम्, अस्पाश्चयंतपश्चरणगोचराचार-पूर्ण आडम्बर, शरीर पर भस्म लपेटना, जटाजूट का धारण, वस्त्रविशेष का धारण, दर्भासन पर बैठना, दर्भ-सूत्र को कमर में धारण करता, प्रोक्षण ( भुमि-शुद्धि के लिए जल व दुग्ध-आदि का सिञ्चन करना ), हस्त में मुद्रिका-चारण या बाहू में डाभ-धारण, कुश-आसन, दण्ड ( पलाश-आदि-काष्टविशेष), करण्डक (पुष्प रखने का पात्र ), शारीरिक अङ्गों का जलादि से पवित्र करना, स्नान, आचमन, पितृ पूजा ( श्राद्ध द्वारा पितृतर्पण), अग्नि पूला, ये क्रियाएं आत्मतत्व से विमुख मानवों के लिए शोभायमान होती हैं, न कि तत्वज्ञानियों को ॥ १७८-१७२ ।। आम कौन हो सकता है ? आत्मा व परमात्मा का बोध करानेवाला ज्ञान कौन है ? मोक्षोपयोगी तत्व कौन हैं ? या वस्तु स्वरूप क्या है ? अर्थात्-सर्वथा एकधर्मात्मक बस्तु है ? या अनेक धर्मात्मक वस्तु है ? बन्ध किसे कहते हैं ? और मोक्ष का क्या स्वरूप है ? इत्यादि विचार नहीं नहीं है। अर्थान्-ये सब मोक्षोपयोगी सिद्धान्त' वहां नहीं हैं। अभिप्राय यह है कि मिथ्याष्टियों के मत सर्वथा नित्य व सर्वथा अनित्य-आदि एकान्त वस्तु के प्रतिपादक हैं, इसलिए उनके यहाँ बन्ध व मोक्ष का सही स्वरूप संघटित नहीं होता ॥ १८ ॥
जिस सम्प्रदाय में आस और आगम सदोष हैं, अर्थात्-यदि साप्त रागादि दोषों से दूषित है और आगम पूर्वापरविरोध-आदि दोषों से सहित है, तो उनमें विशुद्धि-प्रामाणिकता-संघटित नहीं हो सकती। उसके अनुयायियों का वाह्य क्रियाकाण्ड गुद्ध होने पर भी वैसा अभिलषित फल ( मोक्ष) नहीं दे सकता, जैसे नीच जातियों में जुलौन सन्तान उत्पन्न करने की योग्यता नहीं होती ॥ १८१ ।। इसलिए मिथ्यादृष्टियों ( बौद्धमादि) की न वचन से स्तुति करनी चाहिए और न उनकी मन से प्रशंसा करनी चाहिए एवं उनका मन्त्रबादआदि संबंधी शान ब विज्ञान जानकर विद्वान् को श्रम में नहीं पड़ना चाहिए ।। १८२ 11
[अमूढ़दष्टि अङ्ग में प्रसिद्ध रेवती रानी को कथा ] इस विषय में एक कथा है, उसे सुनिए
मोतियों की किरणों से सुशोभित हुए वेश्याओं के कर्णकुण्डलवाले पाण्ड्यदेश में नागरिक मनुष्यों के पवित्र आचरण से पापरूपी राक्षसों से रहित दक्षिणमथुरा' नामकी नगरी है। यहाँ ऐसे पूज्य 'मुनिगुप्त' नामवाले आचार्य विराजमान थे। समस्त द्वादशाङ्ग श्रुतरूपी समुद्र के पारगामी जिन्होंने अवधिज्ञानरूपी समुद्र के मध्य समस्त लोक का भाग प्रत्यक्ष करके दिखलाया था। जो अष्टाङ्ग महानिमित्तज्ञानरूपी लक्ष्मी से १. मृत्तिकादिविधिना। २. आचमनं। ३. अभिलषित ! ४. नीषजातिषु । ५, वचसा । *. मनसा । ६. मन्त्र
बादादित्रिपयं । ७. निर्बीजीकरणादिविषयं । * किरण । ८. विधुराः राक्षसाः । *, 'विधुगा' (स.)। १. समुद्रः । १०. अष्टाङ्गमहानिमित्तानि भोमस्वरशरीरव्यञ्जनलक्षणछिन्नभिन्नस्वप्नाः 1 अन्तरिम स्वरो भौममंगण्यञ्जनलक्षणं । छिन्नभिन्न इति प्राहुनिमित्तान्यष्ट नद्विदः ।। १ ।।