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षष्ठ आश्वासः
२४३ स्तनतुङ्गिमस्तिमितपृष्ठभागम्, अनिमिषषनषिसपिकर्पूरो िवगर्भसंभवपरागपारितपिपरिफरम्, अचिरगोरोचनामङ्गरागपिङ्गला*म्बकपरिकल्पित भालसरःस्वर्णसरोजाफरम्, अबालकपासवल कलापालवालयलयविलएन्मोलि मूलष्यतिकरम, गतिविफटजटाजूटकोटरपर्यटद्गगनाटनतटिनीतरङ्गकरकेलिफुतूहलितवालपालेय करम्, भाभरण' भिगिसंदभितान १"कभुजङ्गभोगसंगतानेकमाणिक्यविकनिकरातिशपसारशाला जिनविराजभानम्, उमरखमकाजकावकृपाणपरधुत्रिशूलखट्वाचगादिसङ्गसंकटकोटकोदिविस्तारम्, स्त-
बेरमासुरसमअवधिरदिनीकृतनविनीतानम्, अनलोय.निकुम्भ-कुम्भोदर-हेरम्ब-भिनिरिष्टि-प्रभृतिपारिव परिषपरिकल्प्यमानसिविधानम्, बहिनावतरनिधानमाकारमनुकृत्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं क्षोभयामास । सापि स्यावादसरस्वतीसुर र भिसंभावनबलवी वरुणमहोशमहादेषी इमा मन"श्रुति कुतश्चित्पश्चिमप्रतोलिसृताढिपधिवतो निश्चिरय निशम्यन्ते तल प्रवचने तपःप्रत्यवाय वार्ताऽभवा दास्ते पुनः संप्रसि स्वकीयफमण विपाकात्कार" सिन्दीप्तोवरोदगतं वसिनः संजाताः ।
भाग पीछे धारण की गई गौरी के निविड़ व उन्नत कुचकलशों से निश्चल था। जिसका शरीर-परिकर ( अवयव-समूह ) नन्दन बन में फैले हुए कपूर के वृक्षों के मध्य से उत्पन्न होनेवाली पराग ( कपूर-धूलि ) से उज्वल था। तत्काल किये हा गोरोचना के मर्दन से उत्पन्न हुई कान्ति सरीखे पीलें नेत्र से, जो ऐसा मालूम पड़ता था—मानों-जिसने मस्तकरूपी सरोवर में सुवर्ण के कमल-समूह को रचना की है। जिसका गला विशाल (बड़े-बड़े) आथे ,खप्पणों की श्रेणीरूपी क्यारी-समूह में सुशोभित हो रहा था । जिसने अत्यन्त विस्तीर्ण जटाजूट की कोटर में विहार करतो हई देवनदी को तरङ्गख्यो हायों को क्रीड़ा में वालचन्द्र को कौतुहल-युक्तक्रोड़ा-युक्त किया है। जो ऐसे गजचा सुमोभित है, जो
की मना से मिश्रित बृहत्वाय सर्प की फणा के अनेक माणिक्यों की किरण-घेणी के अतिशय से कर्बुरित ( चितकबरा ) हो रहा था । जिसके हाथों का अग्नभाष थेष्ठ डमरू, धनुष, खङ्ग, परशु, त्रिशूल, खट्वाङ्ग ( अस्त्र विशेष ) आदि के सङ्गम से व्याप्त था । जिसने गजासुर के चर्म में प्रवाहित हुए रुधिर-प्रवाह से विस्तृत नृत्यभूमि को वृष्टि से व्याप्त की थी और जिसको पूजा कातिकेय, निकुम्भ, कुम्भोदर, विनायक व भिङ्गिरिटि-आदि गणों के सभासदों द्वारा को जा रही थी। - परन्तु जब स्यावाद वाणी रूपी कामधेनु को दुहने के लिए गोपी-सरीखो वरुपा राजा की महादेवी रेवती रानी ने यह बात पश्चिम दिशा के मुख्य मार्ग से आने वाले किसी विद्वान् से मुनी तब उसने निश्चय किया—कि निश्चय से शास्त्र में तपश्चर्या के भद्ध करने की वार्ता से अभद्र रुद्र मुने जाते हैं, परन्तु वे इस समय अपने कर्मोदय ( भुज्यमान आयु कर्म का क्षय ) से यमराज की जठररूपी गर्त में पड़े हर हैं; अत: यह कोई दूसरा हो इन्द्रजाल-विद्या के विनोद से अज्ञानियों का हृदय मर्दन करने वाला रुद्र है, ऐसा निश्चय करके वह निस्सन्देह बुद्धिवाली होकर स्थित रही । अर्थात्-उक्त रुद्र के दर्शन के लिए नहीं गई।
निश्चल स्थित । २. उविदास्तरवः । ३.शरीरं । ४. सद्यः। ५. नेत्र। ६. ललाट । ७. मई 1 ८. गलः । १. देवनदी। १०. चन्द्रः । ११. रमना । ।१२, मिश्रित । १३. वृहत् । १४. घरोरं फणा | १५. किरण | १६. कर्बुर । १७, गजचर्म। १८. धनः । १९. हस्त । २०. गजासुरः । २१. कार्तिकेय । २२. विनायकः । २३. गणाः 1 २४. पूजा। २५. रुद्रावतार । २६, कामधेनुः । २७. गोपो । २८. बार्ता । २९ पपिहतान् । ३०. भङ्ग । २१. यमुनानाता ( यमः ) यमजठर ।