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षष्ठ आश्वासः
२४७ पिरस्ति, यः खलु पूर्ववेवानिवंशावाप्तकोतंने ताम्रलिपपत्तने पुण्य पुरुषकाराम्पामास्मसात्कृतरत्नाकरसारस्य जिनेन्द्रभक्त भामावतारस्य वाणिवपतेः सप्ततलापारानिमभूमिभागिनि जिमसम्म नि छत्रप्रशिक्षण्मण्वनीमूतमद्भुतघोतस नोरं वैडूर्यमणिमानपति, सदानेनुः पुनरभिमाविषयनिषेकमेव पारितोषिक'म् ।' सत्र च सवः सूर्पो नाम समस्तमलि म्यानेसरो धौरः किलवमलापीत्-'देव, कियपहन तय तरे मोऽहं देवप्रसादाद्वियव यसामविरचितामरावतीपुरस्य पुरंदरस्पापि पुडालंकारनूतनं रत्नं पातालमूल निलीनभोगवतीमगरस्योरगेश्वरस्यापि फणगुम्फनाधिष माणिक्यम्पहरामि, सस्प में मनुष्यमात्रपरित्राणधरणि मणि लोचनगोचरागारविहारमपहरतः कियामा महासाइसम्' इति शौर्य गभिरबा निर्गत्यात्य च गौद्धमण्डलमपरमुपायमपश्यन्मणिमो पायाक्षि प्तक्षस्लकवेषश्चान्द्रायणाचरणः पक्षपारणाकरणर्मासोपवासप्रारम्भरपरैरपि तपःसरम्भः सोभिजनमारग्रामग्रामणीयणः क्रमेण जिनेन्द्रभक्तभावाषिकरणताममजत । एकान्तभक्तिशक्त: स जिनेन्द्रभक्तस्तं मापात्मसात्कृतत्रिमतमाकारमा परमार्याचारमजाननार्यवषिश्यमनेकानयरलरचितजिनदेवसंबोजामदेवगृहे स्वया तायवासितस्पं यावयह बहिन यात्रा विद्याप समायामि' प्रत्ययावत । मनकटकूटकपटकमः प्रियतमः
परिषत् से कहा—'वीरो! पराक्रम करने में असाधारण रसिकता दिखानेवाले व महान् साहसो आप लोगों के मध्य में क्या कोई ऐसा वीर पुरुष है ? जो कि मेरे प्रार्थनारूपी अनिथि के मनोरथ का सहायक है, अर्थातमेरी अभिलापा की पूर्ति में सहायक है ? आपमें से जो कोई निश्चय से पूर्चदेश की सेना का स्थान होने से ख्याति प्राप्त करनेवाले ताम्रलिप्त नामके नगर में आने पुण्य व पौरुष से समुद्र को मारभूत लक्ष्मी प्राप्त करने वाले व वैश्य-स्वामी जिनेन्द्र भक सेट के सतमंजिल महल की अग्रभूमि पर वर्तमान जिनमन्दिर से तीन छत्र की शिखा के अग्रभाग का अलङ्काररूप व आश्चर्यजनक कान्ति के समीपवर्ती वैडूर्यमणि को नुराकर ले आये, उसे लानेवाले वीर पुरुष के लिए इच्छित वस्तु के दानवाला पारितोपिक दिया जायगा।'
यह सुनकर समस्त चीरों में अग्नेसर, अभिमानी व वीर 'सूर्प' नाम के चौर ने निस्सन्देह कहा'हे देव ! यह क्या कठिन है ? क्योंकि जो मैं आपके अनुग्रह से गमन-प्रान्त में बनी हुई अमरावतो नगरी के स्वामी इन्द्र के मुकुट के अलङ्काररूप नवीन गन को एवं पाताल-मूल में स्थित हुई भोगवती नगरी के स्वामी धरणेन्द्र को फणा में विशेपरूप से गुथे हुए माणिक्य को भी अपहरण कर सकता है, उसके लिए मनुष्यमात्र द्वारा रक्षा के योग्य पुथिचोवाले और नेत्रों के विषयोभत स्थान में वर्तमान मणि का चराना कोई विशेष साहस नहीं है। इस प्रकार अपनी शूरता की गर्जना करके सूपं नाम का चौर वहां से निकलकर गौड़ देश में आया और दूसरा उपाय न देखकर उसने मणि-नुराने के लिए क्षुल्लक का वेष धारण किया | पुनः उसने पन्द्रह दिनों के बाद पारणाबाले और एक महिना के उपवासों से शुरु होनेवालं चान्द्रायणनत के आचरणों से और दूसरे तपश्चर्या के अनुष्ठानों से पर्वत, मगर व ग्रामवासी श्रेष्ठ जन-समूह को क्षोभ में प्राप्त करा दिया और कम से जिनेन्द्रभक्त सेट के भाव का आधार स्थान हो गया । पश्चात् उसकी विशेष भक्ति में समर्थे जिनेन्द्र भक सेट ने माया से क्षुल्लक-बेष को अपने अधीन करने वाले व सत्याचार से रहित-झूठे आचार वाले उसे न जानकर उससे निम्न प्रकार प्रार्थना को-'आर्यश्रेष्ठ ! अनेक बहुमूल्य रत्नमयो जिनप्रतिमा-समुहवालं हमारे जिन मन्दिर में आप अवश्य तव तक ठहरिए जब तक कि में जहाज द्वारा यात्रा करके वापिस न लोटू ।'
१. पूर्वजन्मपुण्यं । २. इनमश्च, पुरुपकारसायनात्र उद्यमी व्यवसायः धनार्जनं च । ३. सभीग । ४. उचित दान
दास्यामि । ५. चौराः। ६. गगनप्रान्त । ७. मुले निलोनं भोगगतोनगरं यस्य सः उरगश्वरः तस्य । ८. चोरणार्थ । १. रचित । १०. श्रेष्ठः । ११. सत्या नाररहित । १२. जिनदेहसंदोहे (ल.)। १३. यानपात्रगमन । १४. प्राथितः ।