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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये 'अहो नूतनस्य सम्यक्रपरस्तस्पाच्या समपथ पपरप, नंतचित्रमत्र यस्सं 'घासत्त्वाम्यामखिलपि लोकरसवृशेषु भवाघरेषु न प्रभवन्ति प्रसिभप्रभवाः द्रोपद्रवाः । यतः । एकापि समय जिनभातगति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितु दातु मुक्तिभिर्य कृसिनः ॥ १५८ ॥'
इसि निगोय, वितीयं च जिनसममाराधनवशे मवशे सर्वानापहारोऽयं हारः सकलसपन संतानो"च्छेएमिषमातो व प्रेषणं करिष्यतीति कृतसंकेतान्या तवय मभिमतावस्यानं स्थानं प्रास्था यि । विशेश्वरवरतजुम्भमाणगुणसंकथः पचरयोऽपि तसीपकृतो गणधरपदाधिकृतो भूत्या करवा चारमानमनूनरत्नत्रयता मोझामृतमात्रमजायत । भर्वात चाय लोकःउररीकृतनिहिसाहसोचितचेतसाम् । उभो लामो लोको कोश्चापं जगत्त्रयम् ॥ १५९ ॥
इत्युपासकाध्ययने जिमदत्तस्य पारथपृथ्वीनाथस्य स प्रतिहानिर्वाह्साहसी नाम पष्ठः कल्पः । उपसर्ग-संगम का विनाशक है।' फिर राजा की धैर्य-वृद्धि के कारण उन दोनों देवों को विस्तृत आनन्द व बुद्धि उत्पन्न हुई और उन्होंने समस्त विघ्न-संबंध दूर करके राजा को सन्मानित करते हुए कहा-'नये सम्यग्दर्शनरूपी रत्न के निष्कपट गृह-मार्ग पप्ररथ ! प्रतिज्ञा व धैर्य के कारण समस्त प्राणियों की अपेक्षा अनोखे आएसरीखे महापुरुषों पर हठ से उत्पन्न हुए क्षुद्रोपद्रव धर्मध्यान से डिगाने में समर्थ नहीं हो सकते । इसमें आश्चर्य नहीं।
क्योंकि अकेलो एक जिनभक्ति ही धार्मिक पुरुष को दुर्गति के निवारण करने में, पुण्य वृद्धि करने में एवं मुक्तिरूपी लक्ष्मी को देने में समर्थ है ।।१५८।।
__ इसके पश्चात् दिव्य वस्तुओं के प्रति संकेत करने वाले उन्होंने उसे दो दिव्य वस्तुएँ प्रदान की। १. दिव्य हार २. दिव्य वाद्य ! 'यह दिव्य हार जैन धर्म को आराधना के अधीन हुए आपके कुटुम्बी जनों के समस्त रोग नष्ट करेगा और यह दिव्य वाद्य समस्त शत्रु-कुल का उच्छंद ( नाश ) करने योग्य है और प्रेषण ( भगा देना) करेगा।' ऐसा कहकर उन दोनों देवों ने अपने अभीष्ट स्थान में प्रस्थान किया।
इन्द्र के मुख द्वारा निरूपण किये हुए गुण-कथनवाला पद्मरथ राजा भी उस तीर्थङ्कर के समवसरण में गणधर के पद पर अधिष्ठित होकर अपनी आत्मा को रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) से अलङ्कृत करता हुआ मोक्षरूपी अमृत का पात्र हुआ ।
प्रस्तुत विषय के समर्थक पुष्प श्लोक का अर्थ यह है
जिन महापुरुषों की मनोवृत्ति स्वीकार किये हुए व्रतों के निर्वाह संबंधी साहस के योग्य है, उनके दोनों लोक अभीष्ट वस्तु का दोहन करने बाले होते हैं एवं उनकी इतनो विस्तृन कीर्ति होती है कि उसे व्याप्त होने के लिए तीन लोक भी अल्प हैं ।।१५९॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में जिनदत्त ब' पद्मरण राजा का प्रतिज्ञा-निर्वाह के साहस को बतलाने वाला यह छठा कल्प समाप्त हुआ।
१. संघा प्रतिज्ञा मर्यादा द्रश्या मुव्यवसायेषु सत्वं । २. हलादुत्पन्नाः। ३. वितीर्य दत्वा। ४.५, शत्रुकुलं । । ६. वाच । ७. हारः आताधं द्वयं । ८, गर्य ।