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यशस्तिसकंचम्पूकाव्य सो फापालिका योचाण्डालशवरादिभिः। आप्लरपर दण्डसम्याजम्मानमयोषितः ।।१३०।। एकान्तरं त्रिरा वा कृत्वा स्नास्था चके । रिने शुनधास्यसंवेहमती प्राप्तगताः स्त्रिपः ॥१३१॥ यवेवाङ्गमशुखं स्याङ्गिः शोध्यं सदेव हि । अगुली सर्पबदार्या म हि नाप्ता निकृत्यते ।।१३२।। निष्प वाबिविषौ वक्त्रे यत्रतत्वमिष्यते । तहिं अपनापवित्रत्वे शौचे नारम्यते कुतः ॥१३॥ विकारे विदुषां वषो नाविकारानुवर्तने । तन्नप्नत्वे निसर्गोत्थे को नाम उप कल्मषः ॥१३४॥
कचन्यमहिसा च कुतः संमिनां भवेत । ते सलगाय पदोहन्ते बल्फलाजिनवाससाम ॥१३५।। न स्वर्गाय स्थिते क्तिनं श्वभ्रायास्थितेः पुनः । कि तु संयमिलोकेऽस्मिन्सा प्रतिज्ञार्थमिष्यते ॥१३६॥ पाणिपात्रं मिलस्येतच्छक्तिश्च स्थितिभोजने । यावत्तावनहं भुञ्ज रहा" म्याहारमन्यथा || १३७।।
अन्यासवराग्यपरोषस्कृत कृतः । अत एव यतीशानां केवोत्पाटनसद्विषिः ।। १३८५ रजस्वलास्त्री से, वाण्डाल व म्लेच्छ वगैरह अस्पृश्य शूद्रों से छूजाय तो उसे दण्ड स्नान करके उपवासपूर्वक मन्त्र का जप करना चाहिए ॥ १३०॥
ऋतुमती स्त्रियों की शुद्धि-अहिंसा-आदि व्रतों को धारक स्त्रिया (आर्यिका-आदि ) ऋतुकाल में एक उपवास अथवा तीन दिन का उपवास करके चौथे दिन स्नान करके निस्सन्देह शुद्ध हो जाती हैं ।। १३१ ॥ आचमन न करने का समर्थन-[अब मुनियों के आचमन न करने का समर्थन करते हैं ] क्योंकि शरीर का जो भङ्ग अशुद्ध हो, निस्सन्देह जल की शुदिती नाति । ये डमो हुई अलि हो काटो जाती है न कि नासिका ।। १३२ ॥ अधोवायु के निस्सरण-आदि करने पर यदि मुख में अपवित्रता मानते हो तो मुख के अपवित्र होने पर अधोभाग में शौच क्यों नहीं करते हो ?
भावार्थ-जैस मुख अशुद्ध हो जाने पर आचमन से केवल उसे हो शुद्ध किया जाता है, वैस हो जैन साधु भी शोच ( मलोत्सर्ग ) से अशुद्ध हुए गुदा-भाग को ही जल से शुद्ध करते हैं, न कि आचमन से मुख को ।। १३३ ॥
[अब मुनियों की नग्नता का समर्थन करते हैं--] विद्वानों को विकार ( काम-क्रोधादि ) से द्वेष होता है न कि अविकारता ( बोतरागता ) के अनुसरण से । अतः स्वाभाविक नग्नता से किस बात की द्वेषरूपी मलिनता ? ।। १३४ || यदि चारित्रधारक दिगम्बर महामुनि [पहिरने के लिए ] वृक्षों को छाल मृगचर्म व वस्त्रों के ग्रहण को इच्छा करते हैं तो उनमें नेटिकञ्चन्य (निष्परिग्रहता) और अहिंसा कैसे संभव है ? ||१३५॥
[ अब मुनियों के खड़े होकर आहार ग्रहण करने का समर्थन करते हैं--] दिगम्बर साधुओं का खड़े होकर आहार-ग्रहण उनके स्वर्ग के लिए नहीं है और न बैठकर आहार-ग्रहप नरक-निमित है। किन्तु [आगम में ] खड़े होकर भोजन करना संयमी मुनिजनों में प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए चाहा गया है ।। १३६ ।। मुनि भोजन प्रारम्भ करने से पूर्व यह प्रतिज्ञा करते हैं कि-'जब तक मेरे दोनों हाथ मिले हैं और मेरे में खड़े होकर आहार-ग्रहण की सामर्थ्य है तब तक मैं यथाविधि आहार ग्रहण करूँगा, अन्यथा आहार-त्याग कर दूंगा' इसी प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए मुनि खड़े होकर भोजन करते हैं । १३७ ।। [ अब केश-लोच का समर्थन करते हैंअदीनता, निष्परिग्रहपना, वैराग्य और परोषह-जय के लिए मुनियों को केश लोच करने का विधान बतलाया है ॥ १३८॥
१. आत्रेयी रजस्वला ऋतुमती । २. स्नास्वा। ३. पर्व कुल्लिते शब्दे च-पदने सति चेदाचमनं क्रियते तहि
मखाच्छिष्ट अघीभागे शो किन क्रियते ? ४. द्वेष एवं कल्मपः मलिनत्वं। ५. त्यजामि । ६. विक्षितः।