Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकपम्पूकाध्ये माता वा महान्सूक्ष्मः कृति' पोः स्वयं प्रभुः । भोगापसनमात्रों' ऽयं स्वभावानुध्वंगः पुमान्' ||१७७।। ४ ज्ञानवर्शनशम्पस्य न भेवः स्यावचेतनात् । शानमात्रस्य जोवस्त्रे नेकषीश्चित्रमित्रवत् ॥१८॥ प्रेर्यते कर्म जीवन जीवः प्रेत कर्मणा । एतयोः प्रेरको नाभ्यो नौनाविकतमानयोः ।।१०९||
अग्नियती प्येषोऽचिन्स्यशक्तिः स्वभावतः । अतः शरीरतोऽन्यत्र न भा' योऽस्य प्रमाग्वितः ।।११०॥ प्रसस्थावरभेदेन चतांतिसमाप्रयाः । जीवाः केचित्तथान्ये च पञ्चमों पतिमानिसाः ॥११॥ धर्माधमौ' नभः फालो पुदगलइयेति पञ्चमः । अजीवशब्दधाम्याः स्युरेते विषिषपर्ययाः ।।११२॥ "गतिस्थित्यप्रतीपातपरिणामनिवन्धनम | घरवारः सर्ववस्तुना कपाशमा च पूर्वगलः ॥११॥ अन्योन्यानुप्रवेशन बन्यः परजाः । पति पानामाग हानिक नल सेरिव ॥११॥ प्रकृ तिस्थित्यन भाषप्रदेशविभागतः । चतुर्षा मिद्यते बन्धः सर्वेषामेव वेहिनाम् ॥११५।।
जायगा तो वस्तु में कभी भी कोई परिवर्तन नहीं हो सकेगा, और परिवर्तन न होने से जो जिस रूप में है, वह उसी रूप में बनी रहेगी, अतः बद्ध आत्मा सदा बन ही बना रहेगा, अथवा कोई आत्मा बंधेगा ही नहीं। अतः प्रत्येक वस्तु को द्रव्य दृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य मानना चाहिए । १०६ ।।
___ यात्मा का स्वरूप-आत्मा शाता, दृष्टा, महान् व सुक्ष्म है, स्वयं ही कर्ता और स्वयं ही भोक्ता है। अपने शरीर के बराबर है तथा स्वभाव से ऊपर को गमन करने वाला है। यदि आत्मा को ज्ञानदर्शन से रहित माना जायगा तो अचेतन-जड़पदार्थ से उसमें कोई भेद नहीं रहेगा, अर्थात्-जड़ और चेतन दोनों एक हो जायगे। और यदि ज्ञानमात्र को जीव माना जायगा तो चित्रमित्र की तरह उसमें अनेक बुद्धि कैसे संघटित होगी ? अर्थात्-जैसे चित्रमित्र नामका कोई पुरुष, किसी का शत्रु है और किसी का मित्र है, अतः उसमें शत्रुता व मित्रता-आदि अनेक धर्म से अनेक बुद्धि संघटित होती है, परन्तु जब सिर्फ ज्ञान-मात्र को जीव माना जायगा तो उसमें केवल एक धर्म ( ज्ञान-मात्र) होने से एक बुद्धि ही संघटित होगी। अनेक बुद्धि नहीं बनेग ।। १०७-१०८॥
__जीव से कर्म प्रेरित ( वन्ध ) किये जाते हैं और कर्मों से जीव प्रेरित किया जाता है । अर्थात्-अपने इष्ट अनिष्ट फलोपभोग के लिए गर्भवास में ले जाया जाता है। इन दोनों का संबंध नौका और नाविक-खेव. टिया-सरीखा है। और कोई तीसरा इन दोनों का प्रेरक नहीं है। भावार्थ-जैसे खेवटिया से नौका खेई माती है और नौका से खेवटिया नदी पर पहुंचाया जाता है वैसे ही जीव कम परस्पर प्रेरक है और कोई तीसरा इनका प्रेरक नहीं है ।। १०९॥ जैसे मन्त्र नियत-अक्षरों वाला होने पर भी अचिन्त्य शक्ति वाला होता है वैसे हो जीव शरोर परिमाण होकर भा अचिन्ल्प शक्तिशाली है। अतः शरीर से पृथक् इसका सद्भाव प्रमाण-सिद्ध नहीं है ॥ ११ ॥
१. का भोका ।। २. आत्मा शरीरप्रमाणः । ३. आगा। ४. पूर्णार्थ.- जानदर्शनाम्यां यत् शुन्यं यस्तु तस्य
वस्तुनः अचेतनात् को भदो : न कोऽपि । अथवा च ज्ञानमा सत् कथमनेकधीः यथा कोऽपि 'चित्रमित्रों
नाम पुमान् स कस्यापि शत्रुः कस्यापि मित्रं । ५. मन्त्री यथा अक्षर : कुल्वा समर्यादः एषोऽप्यात्मा काममात्रः । ६, न मद्भावः अस्तित्व, शरीरात् पृथक् न भवतीत्यर्थः । ७. गतिस्थित्यादि-सर्वत्र वस्तूनां गतिनिवधन धर्म'।
स्थितिनिबंधनपत्रमः । अप्रतीपातनिवन्धन नभः । परिणामनिबंधन; काल.। ८. प्रकृत्यादिःप्रकृतिः स्यात् स्वगावोऽत्र स्वभाबादच्युतिः स्थितिः । तद्रसोऽप्यनुभागः स्यात्प्रदेशः स्यादियत्तत्वं ॥१॥