________________
षष्ट आश्वास
पायरूपेण
स्मृतः ॥ १०३ ॥
चतुषं समाश्रपान् । नात्रयतामा समस्या गमः आत्मानात्मस्थिति को बन्धमोक्ष सहेतुको आगमस्य निगद्यन्ते पदार्थास्तत्त्ववेदिभिः ॥ १०४॥ उत्पत्ति स्थितिसंहारसाराः सर्वे : स्वभावतः । तथ* तुया ध्यावेते" तरङ्गा इव तोयधेः ।। १०५ ।। यन्त्र मोक्षक्षयागमः । तात्विक करवसद्भाव" स्वभावान्तरहानितः ॥ १०६ ॥
या 'क्षक पक्ष
२०५
प्रत्यक्ष से देखें हुए पदार्थ में प्रवृत्त हुए वचन की प्रमाणता प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध हो जाती है। जो वचन ऐसे पदार्थ को कहता है, जिसे अनुमान प्रमाण से ही जाना जा सकता है, उस वचन की प्रमाणता अनुमान प्रमाण से निश्चित होती है और जो वचन बिलकुल परोक्ष वस्तु को कहता है, जिसे न प्रत्यक्ष से ही जाना जा सकता है और न अनुमान से, उस वचन की प्रमाणता पूर्वापर में कोई विरोध न होने से ही सिद्ध होती है । अभिप्राय यह है कि द्वादशाङ्ग में निरूपित पदार्थ प्रत्यक्ष व युक्ति द्वारा प्रमाणित होते हैं, परन्तु जहाँ प्रत्यक्ष व युक्ति नहीं टिकती वहाँ पर पूर्वापर विरोधी बातें न होने से प्रमाण मानना चाहिए ॥ १०१ ॥ जो आगम परस्पर विरोधी बातों का कथन करने वाला है व युक्ति ( तर्कप्रमाण ) से बाधित है, शराबी या पागल की वकवाद - सरीखा वह बागम कैसे प्रमाण माना जा सकता है ? " ॥ १०२ ॥
बागम का स्वरूप और विषय - जो धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों के माश्रयदाले त्रिकालवर्ती पदार्थों का हेय ( छोड़ने योग्य ) व उपादेय ( ग्रहण करने योग्य) रूप से यथार्थ ज्ञान कराता है, वह मागम कहा गया है ॥ १०३ ॥ तत्ववेत्ता महामुनियों ने आगम में निरूपण किये जाने वाले निम्नप्रकार पदार्थ कहे हैं— जीव, अजीव (पुद्गल आदि ), लोक तथा अपने कारणों के साथ बन्ध और मोक्ष | भावार्थ - जिसमें उचचार्थीका है कि उपादेय क्या है, वही यथाचं आगम है, उसमें जोव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा व मोक्ष इन सात तत्वों का निरूपण है ।। १०४ || पदार्थस्वरूप – ये सभी पदार्थ ( उक्त जीवादि) द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय को अपेक्षा स्वभाव से वैसे उत्पाद, विनाश व स्थिरशील हैं जैसे समुद्र की तरङ्गे उक्त नयों की अपेक्षा स्वभावतः उत्पाद, विनाश व स्थिरशोल हैं। भावार्थ - जैनदर्शन में प्रत्येक पदार्थ अनेक धर्मात्मक माना गया है; अतः वह द्रव्यदृष्टि से सदा नित्य है; क्योंकि कभी वह अपनी द्रव्यता - नित्यता नहीं छोड़ता और इसीलिए उसको सभी अवस्थाओं में यह वही है इस प्रकार की एकत्वप्रतीति होती है । इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ पर्यायदृष्टि से अनित्य- उत्पाद - विनाश-युक्त है । जैसे- समुद्र में अनेक प्रकार की तरङ्गे उत्पन्न व विलीन होती हुई प्रत्यक्ष प्रतीत होती है ।। १०५ ॥ यदि [ बौद्धदर्शनकार ] समस्त वस्तु को प्रतिक्षण विनाशशील मानते हैं और यदि [ सांख्यदर्शन ] समस्त वस्तु को सर्वथा नित्य मानते हैं तो बंद व भोक्ष का अभाव प्राप्त होगा। अर्थात् ततो बन्ध घटित होगा और न मोक्ष घटित होगा। क्योंकि सर्वथा एक रूप मानने पर उसमें भिन्न स्वभाव घटित नहीं होगा अतः प्रत्येक वस्तु को द्रव्य की अपेक्षा नित्य व पर्याय की अपेक्षा अनित्य मानना युक्तिसंगत है ] ।
भावार्थ - द्रव्यदृष्टि से वस्तु ध्रुव है और पर्याय दृष्टि से उत्पाद विनाशशील है। यदि वस्तु को सर्वथा क्षणिक ही माना जायगा तो प्रत्येक वस्तु दूसरे क्षण में समूल नष्ट हो जायगी। ऐसी अवस्था में जो आत्मा वा है, वह तो नष्ट हो जायगा तब मुक्ति किसको होगी ? इसी प्रकार यदि वस्तु को सर्वथा नित्य माना
१. शापयन् । २. पुद्गलः । ३. समस्ताः पदार्थाः । ४. निश्चय व्यवहार । ५. पदार्थाः ६ से ९. यदि क्षय एष अनि क्षणिकं सर्वं मन्यते अथ अक्षयं अविनश्वरं मन्यते तस्याद्भवेत् कोऽसौ बन्धमोक्षक्षयागमः न बन्धो घटते न मोक्षो घटते कुतः स्वभावान्तर हानित: । क्व सति तात्विकत्वसद्भावे नित्यत्वे इत्यर्थः ।
१०. देखिए - वेद व स्मृति शास्त्रों में पूर्वापर विरोध, यश० ० ४ श्लोक नं० १२० से १२८ तक ।