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षष्ठ आश्वास:
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अनयव विधा' चिन्त्यं साल्पवाक्यानिवासनम् । तत्त्वानमासापाणां नानात्वस्याविशेषतः ||८८|| अनमेक मतं मुक्त्वा द्वता ससमात्र यो । मागों समामिलाः सर्षे सर्वाम्पुरगमागमाः ।।८९||
वामक्षिणमार्गस्थो मन्त्रीतर समाषपः । कर्मशागतो नेपः शंभशापयतिनागमः ॥१०॥ बच्चतत्
अति मिह प्राहुर्धर्मशास्त्रं स्मतिर्मता । ते सर्वायम्वमीमांत्ये ताम्यां धर्मो हि निर्मभौ ॥११॥
ते तु यस्त्ववमन्येत हेतुशास्त्राथयाद्विजः । । साभिमाहा कामो नास्तिको बनिन्दक: ॥९॥ सपि न साथः । यतः । इनकी संख्या नियत है, अर्थात्-जैसे तिथियां पन्द्रह है ग्रह नव हैं, समुद्र चार हैं और कुलाचल छह हैं वैसे ही तीर्थकर चौबीस ही होते हैं ।। ८७ |1
इसी रोति से सांख्य व बौद्ध-आदि के दर्शन भी विचारणीय हैं, क्योंकि उनमें भी तत्व, मागम और आप्त के स्वरूपों में भेद (बहत्व ) प्रतिनियत रूप से पाया जाता है। जैसे सांख्यदर्शन में प्रकृति, महान् व अहङ्कार-आदि पच्चीस तत्व माने हैं एवं बौद्ध ( माध्यमित्रा, योगाचार, सौत्रान्तिक व वैभाषिक ) दर्शनकार क्रमशः सर्वशून्यता, वाह्यार्थशून्यता, वाह्यार्थानुनेयत्व व वाह्मार्थप्रत्यक्षवाद मानकर 'सर्व क्षणिक क्षणिक, दुःखं दुःखं, स्वलक्षणं स्वलक्षणं, शून्यं शुन्यं, ऐसो भावना-चतुष्टय से मुक्ति मानते हैं, इत्यादि । अर्थात्-जैसे उक्त दर्शनकार तत्व-आदि में बहुत्व-संख्या को प्रतिनियत मानते हैं, वैसे ही स्याद्वादी ( जैन दार्शनिक) भी तोर्थङ्करों की बहुत्व संख्या प्रतिनियत मानते हैं ॥ ८८ ॥
एक जैन-मत को छोड़कर शेष सभी { सांख्य-बौद्ध-आदि ) मतवालों ने, जिनके सिद्धान्तों का पक्ष सभी ने स्वीकार किया है, या तो तमत का आश्रय किया है, अर्थात् सेवन करने योग्य पदार्थों में प्रवृत्तिवृद्धि और मेवन करने के अयोग्य पदार्थों से निवृत्तिबुद्धि रूप संयम का विचार किया है, या अद्वैत मत का आश्रय किया है, अर्थात्-सभी भक्ष्य, अभक्ष्य, पेय, अपेय एवं भोगने के योग्य व भोगने के अयोग्य पदार्थों में निरङ्कुश प्रवृत्ति रूप वाममार्ग का आश्रय किया है ।। ८२॥
वाममार्ग बृहस्पति ने और दक्षिणमार्ग शुकाचार्य ने चलाया है। शेवमत, बौद्धमत और ब्राह्मणमत ये वाममार्गों और दक्षिणमार्गी है तथा ये मन्त्र-तन्त्र की प्रधानता से मानने वाले हैं और मन्त्र-तन्त्र को न मानने वाले भी हैं। शैवमत वैदिक कियाकाण्डो ( यज्ञादि का निरूपक) है तथा वौद्ध व ब्राह्मण मत झानकाण्डी है।
भावार्थ-शेवमत, ब्राह्मणमत और चौद्ध मत उत्तरकाल में वाममार्गी हो गए थे। उसमें मन्त्र, तन्त्र व वैदिक यज्ञादि क्रियाकाण्ड की प्रधानता थी। परन्तु दक्षिण मार्ग इसके विपरीत घा, अर्थात् न तो उसमें मन्त्र तन्त्र को प्रधानता थी और न क्रियाकाण्ड की 1 शैवमत का वाममार्ग प्रसिद्ध ही है। बौद्धमत की महायान शाखा सान्त्रिक वाममार्गी थी। इसी प्रकार वैदिक ब्राह्मणमत, जो कि पूर्ण मीमांसा व उत्तर मीमांसा के भेद से दो प्रकार है, उसमें पूर्वमीमांसा वैदिक यज्ञादि क्रियाकाण्डी और उत्तर मौमांसा ( वेदान्त ) ज्ञानकाण्डी है ।। ९०।।
[अब शास्त्रकार मनुस्मृति के दो पद्य देकर उसकी आलोचना करते हैं ]
( मनुस्मृति अ० २ श्लोक १०-११ में) जो कहा गया है.-'श्रुति को वेद कहते हैं और धर्मशास्त्र की स्मृति कहते हैं। इन दोनों से धर्मतत्व प्रकट हुआ है, इसलिए वे दोनों ( श्रुति व स्मृति, १. भवस्थया रीत्या। २. सर्वपक्षसिद्धान्ताः । ३. बृहस्पति शुक्रः गर्वान् मन्त्रेण वशीकरोति शेवः । ४. जीवहोमादि
प्रिया, ज्ञानप्राप्तः विप्रः, मांसमात्रयति बौद्धः । ५. ते वे 1 ६. न विचार्य। ७. देवस्मृती। ८. अवगणयंत् ।