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पशस्तिलकचम्पूकाव्ये समस्तयुक्तिनिर्मुक्त: केवसागमालोचनः । तस्य मिश्छन्न कस्येह भवबारी जयावहः ॥१३|| सन्तो गुणेषु तुष्यन्ति नाविचारेषु वस्तु । पावेन शिप्पते प्राधा रत्नं मौलो निषीयते ॥१४॥ श्रेष्ठो गुणहस्थ: स्यात्ततः श्रेष्ठतरो पसिः । यतेः श्रेष्ठतरो देवो न वेवारषिकं परम् ॥१५॥ हिना समवृत्तम्प" तेर' प्यपरस्थितेः । यदि वेवस्य देवत्वं न यो बुलभो भवेत् ॥१६॥
पासकाप्ययने आप्तस्वरूपमीमांसनो नाम द्वितीयः फरुपः । देवमायो परीक्षेत पश्चात्तवचनत्र मम् । ततश्व तदनुष्ठानं कुर्यात्तत्र मति ततः ॥९७।। मेऽयिधार्य पुनर्देवं हचि सदाधि कुर्वते । सेऽग्यास्त स्कन्धविन्यस्तहाता वाञ्छन्ति सदगतिम् ॥९८|| पित्रोः शुद्धौ यषापरये विशुद्धिरिह वृश्यते । तथाप्तस्य विशुवत्वे भरेवागमशुखता ॥९९॥ वाग्विशुद्धा पि दुष्टा यादवष्टिवत्पात्रोषतः । वन्द्यं वपस्तदेवोच्चस्तोमवत्तीर्घसंधयम् ॥१०॥ दष्टेऽयं वचसो १ध्यक्षाव नुमेये तु मानतः । पूर्वापराविरोधेन परोक्षे व प्रमाणता ॥११॥
पूर्धापरविरोधेन यस्तु युक्तमा ५ पाते । सोमबाए: स प्रमा मिनः ||१०२।। समस्त विषयों ( कर्म व ज्ञानमार्ग में प्रतिकूल तर्कों द्वारा विचारणीय (खंडनीय) नहीं हैं ! जो ब्राह्मण तक व शास्त्र का आश्रय लेकर श्रुति व स्मृति का अनादर करता है, वह शिष्ट पुरुषों द्वारा बहिष्कार करने लायक है और बेदनिन्दक होने से नास्तिक है ॥ ९१-२२ ॥' उक्त मान्यता उचित नहीं है, क्योंकि-जो मसावलम्बी समस्त युक्तियों को छोड़कर केवल आगम मात्र नेत्रवाला होकर तत्व सिद्धि का इच्छुक है, वह वादी लोक में किसी को नहीं जीत सकता ॥ ९३ ।। सज्जन पुरुष गुणों से सन्तुष्ट होते हैं न कि निर्विचारित वस्तुओं से । उदाहरणार्थ -पत्थर पैर से ठुकराया जाता है और रत्न को मुकुट में स्थापित किया जाता है ।। १४ ।। अतः जो गुणों से श्रेष्ठ है, वह गृहस्थ है और गृहस्थ से श्रेष्ठ यति है और यति से श्रेष्ट देव है किन्तु देव से श्रेष्ठ कोई नहीं है ॥ २५ ॥ यदि मुहस्थ-सरोखे आचरण वाला और साधु से भी होन आचरण वाले देवता को देव माना जाता है तब तो देवत्व दुर्लभ नहीं रहता ॥ २६ ॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में आम के स्वरूप की मीमांसा करनेवाला दूसरा कल्प समाप्त हुआ।
। [अब आचार्य आगम और तत्त्व को मोमांसा करते हैं-] सबसे प्रथम देव ( आप्त ) को परीक्षा करनी चाहिए। पीछे उसके आगम की परीक्षा करनी चाहिए। फिर आगम में कहे हुए चारित्र को परीक्षा करके आप्त में श्रद्धा-बुद्धि करनी चाहिए ।। २७ ।। जो मानव देव को परीक्षा किये बिना उसके वचनों में श्रद्धा करते हैं, वे अन्धे हैं, दूसरे अन्वे के कन्धों पर हाथ रखकर सद्गति प्राप्त करना चाहते हैं ।। १८॥ जैसे लोक में माता-पिता की शुद्धि ( पिंडशुद्धि होने पर उनके पुत्र-पुत्रो में शुद्धि देखी जातो है वैसे ही आस के विशुद्ध ( वीतराग व सर्वज्ञ ) होने पर हो उसके आगम में विशुद्धता (प्रामाणिकता ) हो सकती है ॥ ९९ ॥ क्योंकि विशद्ध वचन भी पात्र के दोष ( रागादि ) से वैसा दुष्ट हो जाता है जैसे वर्षा का पानी दुष्ट पात्र ( समुद्र व सर्पआदि) से दुष्ट (खारा या विष ) हो जाता है, परन्तु जब वह महान तीर्थ ( सर्वज्ञ तीर्थकर-आदि वक्ता) का आश्रय प्राप्त करता है ( उनके द्वारा कहा जाता है ) तब वैसा पूज्य होता है जैसे तीर्थ का आश्रय लेनेवाला जल पूज्य होता है ॥ १० ॥
१. वैदस्मृतिविवाररहितः । २-३. एक: आगमः एव लोचनं यस्य स गुमान् तत्त्वं वाञ्छलि स सर्वेषां जयकारी स्यादित्यर्थः । ४. पाषाणः । ५-६. गृहस्थसशस्य देवस्य यतेरपि हीनस्य चेदीदृशस्यापि देवत्वं घटते । ७. देवे । ८. तस्य
अन्धस्य । ९. 'वाग्दिशिष्टाऽपि' इति ह. लि. (20)। १०. जलं यथा । ११. वचनस्य । १२ प्रत्यक्षात् ।