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यशस्तिलकचम्गूकाव्ये तस्वभावनयाभूतं जन्मान्सरसमुत्यया । हिताहितविवेकाय यस्य मानत्रयं परम् ॥८२।।
वृष्टादृष्टमवेत्यर्ष रूपवन्तमपावः । श्रुते श्रुतिसमाश्रयं बवासी' परमपेक्षताम् ।।८३॥ न चैतवसार्वत्रिकम् ।२ कधमत्यमा स्वत एव संजातषयवार्थाव'सापप्रसरे कणवरे वाराणस्यां महेश्वरस्योलकसायु.५ स्पेश्वर स्येवं वचः संगन्धेत-ब्रह्म तुलानामि दिवौकसा दिव्यमद्भुतं ज्ञान प्रादुर्भूतमिह स्वयि 'तत्संविपत्स्व विप्रेम्पः।
उपाये सरयुपेय "स्य प्राप्ते: का प्रतिबन्धिता। पालालस्यं जलं पत्रारकरस्थं क्रियते यतः ।।८४॥ अश्मा'२ हेम जसं मुक्ता मी वन्त्रिः क्षितिर्मणिः । तसतुतया भावा भवन्त्य तसंपदः ।।८५॥ सविस्थितिसंहारमोमवर्षातुषारणस् । अनानन्तभावोऽयमान्त' श्रुतसमाश्रयः ।।८।।
नियतं न बहुत्वं चेत्कषमेते१६ १ तथाविधाः तिथितारापहाम्भोधिभूभृत्प्रभुतयो मताः 11८७।। में उत्पन्न हुई तत्वभावना ( दर्शनविशुद्धि-आदि ) से हिताहित के विवेक के लिए जन्म से ही स्वतः उत्कृष्ट तीन प्रकार के सम्यग्ज्ञान ( मति, श्रुत व अवधि ) उत्पन्न होते हैं, जिनके द्वारा वे दष्ट ( प्रत्यक्ष ) व अदृष्ट(परोक्ष) पदार्थ जानते हैं और अवधिज्ञान से रूपी पदार्थ प्रत्यक्ष जानते हैं एवं श्रुतज्ञान शास्त्र में उल्लिखित तत्व जानता है, तब ये इष्ट तत्व को जानने के लिये दुसरे तीर्थङ्कर को कहाँ पर अपेक्षा करंगे ॥ ८२-८३ ॥
यह बात कि तीर्थकर स्वयं ही इष्ट तत्व को जान लेते हैं, ऐसा नहीं है जिसे सब न मानते हों। यदि ऐसा नहीं है तो जिसमें छह पदार्थों के निश्चय का विस्तार स्वयं उत्पन्न हुआ है, ऐसे कणाद ऋषि के प्रति वाराणसी में कणाद ऋषि का साम्य प्राप्त करने वाले उनके पुत्र महेश्वर नाम कवीश्वर का यह स्तुति-वचन कैसें संघटित होगा?
[ ऋषिराज ! ] 'आप में यहां पर देवताओं का दिव्य, अनोखा व अदभुत तत्व-ज्ञान उत्पन्न हुभा है, जो कि जगत् के तोलने (परिज्ञान) में तराज-सरीखा है, उसे ब्राह्मणों के लिए वितरण कीजिए।'
____ अब मनुष्य को आप्त होने में कोई विरोध नहीं हैं इसे कहते हैं क्योंकि जब कार्यसिद्धि करनेवाली कारण सामग्रो विद्यमान है तब कार्योत्पत्ति में रुकावट कैसे हो सकती है? क्योंकि पाताल में स्थित जल यन्त्र (मशीन ) से इस्ततल पर स्थित कर दिया जाता है। अभिप्राय यह है कि संसारी मानव को भी जब ईश्वरत्व साधक कारणसामग्नी प्राप्त होती है तब उसे भो आत होने में रुकावट नहीं हो सकती ॥ ८६ || सुवर्ण पाषाण से सुवर्ण पैदा होता है। जल से मोतो बनता है। वृक्ष से अग्नि उत्पन्न होती है तथा पृथिवी से मणि प्रकट होता है। इस तरह पदार्थ अपने अपने कारणों से बद्भुत सम्पदा-शाली हो जाते हैं ।। ८५ ॥
जिस प्रकार उत्पत्ति, स्थिति और विनाशा की परम्परा अनादि अनन्त है, या गोष्मऋतु, वर्षा ऋतु और शीत ऋतु को परम्परा अनादि अनन्त है उसी प्रकार आप्त और श्रुत को परम्परा भी प्रवाह रूप से चली आती है न उसका आदि है न अन्त है। आप्त ( तीर्थङ्कर ) से श्रुत ( द्वादशाङ्ग-शास्त्र ) उत्पन्न होता है और
बनता है।1८६|| तोर-संख्या का समाधान-यदि वस्तओं की बहत्व संख्या नियत नहीं है तो तिथि, तारा, ग्रह, समुन्द्र और पहाड़ वगैरह नियत संख्या वाले क्यों माने गये हैं ? अर्थात् जैसे ये बहुत हैं तथापि १. तीर्थ धरः परं गुरु क्च अपेक्षताम् । २. किन्तु मतंय वर्तते स्वयं तवारजानं । ३. ज्ञान । ४ कणाद ऋषी अलपादे
महेश्वरकविः स्तुति चकार । ५. सायुज्यं साम्यं । ६. ऋपे. पुत्रस्य महेश्वरकवेः स्तुतिवचन कायं संगच्छेत । ७. जगतोलने परिज्ञाने तुलामागं तव कणचरस्य ज्ञानं । ८. देवानामपि दिव्यं । १. म त्वं । १०. कुहू । ११. कार्यस्य । १२. पायाणो हेम भवति जलं मुन्न स्वादित्यादि । १३. पदार्याः । १४ उत्पादव्ययभोव्य । १५. तथा भातात् श्रुतं, श्रुतादाप्तः। १६. तीर्थकराः चतुविशतिः भवन्ति । १७. बहवः कथं तिथ्यादयः तथाईन्तोपि ।