Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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अपवर
पेष्ठ आश्वासः
आत्मलाभं विदुर्मोक्षं जोवस्यान्तर्म लक्षयात् । नाभावो नाप्यर्चतन्यं न चंतम्यमनर्थकम् ॥ ११६॥ अन्यस्य कारणं प्रोक्तं मिया' त्यासंयमादिकम् । रनत्रयं तु मोक्षस्य कारणं संप्रकीर्तितम् ।। ११७।। आप्तागमपदार्थानामश्रद्धा विपर्ययः । संदायश्च त्रिषा प्रोक्तं मिथ्यात्वं मलिना मनाम् ॥ ११८ ।।
एकान्तसंशयाज्ञानं अत्र तित्वं प्रमावित्वं
व्यत्यास विनम्याश्रयम् । भव पक्षाविपक्षत्वान्मिथ्यात्वं पञ्चषा स्मृतम् ॥ ११९ ॥ निर्दयत्व मतृप्तता । इयेानविं प्राहुर संयमम् ।। १२० ।।
सन्तः
२०७
जीत के चैत्रों के
चारों गतियों (नरकगति आदि ) में वर्तमान संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं एवं जिन्होंने कर्मक्षय करके सिद्ध गति प्राप्त की है, उन्हें मुक्त जीव' कहते हैं ।। १११ ॥ अजीव द्रव्य - धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये पांच अजीब द्रव्य है । इनकी अनेक पर्यायें होती हैं ॥ ११२ ॥ धर्मद्रव्य जीन व पुद्गलों को गति में निमित्त कारण है । द्रव्य उनकी स्थिति में निमित्त कारण है। आकाश समस्त वस्तुओं को अवकाश देने में निमित्त कारण है एवं काल समस्त वस्तुओं के परिणमन में निमित्त है तथा जिसमें रूप, रस, गंध व स्पर्श के चारों गुण पाय जाते हैं उसे पुद्गल कहते हैं ।। ११३ ।।
बंध का लक्षण -- सुवर्णपाषाण की किट्टकालिमा और सुवर्ण सरीखे जीत्र कर्मों के अन्यान्यानुप्रवेशरूप - आत्मा व कर्म के प्रदेशों का परस्पर बन्ध माना है, जो कि अनादि ( जिसकी शुरुआत नहीं है ) और सान्त ( नष्ट होनेवाला ) है । भावार्थ - जैसे सुवर्ण-पाषाण की किट्टकालिमा अनादि होने पर मो अग्निपुटपाक आदि कारण सामग्री से नष्ट हो जाती है वैसे ही जीव और कर्मों का संबंध अनादि होने पर भी सान्त हैउसका अन्त हो जाता है ॥ ११४ ॥
बन्ध के भेद-वह बन्ध चार प्रकार का है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध | यह चारों प्रकार का बंध सभी शरीरधारी जीवों के होता है । भावार्थ- कर्मों में ज्ञानादि के घातने के स्वभाव को प्रकृतिबन्ध कहते हैं। अपने उक्त स्वभाव से च्युत नहीं होना स्थितिबन्ध है। तीव्र व मन्द-आदि फल देने की शक्ति अनुभाग बन्ध है और न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्मस्कन्धों का जोव के साथ संबंध होने को प्रदेश वेध कहते हैं । इनमें से प्रकृति व प्रदेशवन्ध योग से होते हैं और स्थिति व अनुभाग बन्ध कषाय से होते हैं ।। ११५ || मोक्ष का स्वरूप – राग-द्वेषादिरूप आभ्यन्तर मल के क्षय हो जाने से जीव के आत्म-स्वरूप की प्राप्ति को मोक्ष कहते हैं । अतः न तो आत्म-शून्यता मुक्ति है और न आत्मा की अचेतन अवस्था मुक्ति हो सकती है एवं त निरर्थक ( ज्ञानरूप अर्थ क्रिया से शून्य ) चैतन्य प्राप्ति रूप मुक्ति हो सकती है। भावार्थ - बोद्ध दीपक के बुझनेसरीखी मात्मशून्यता को मुक्ति मानते है ।
वैशेषिक आत्माज्ञानादि विशेष गुणों के अभाव को मोक्ष मानते हैं । इसी तरह सांख्य ज्ञानादि से रहित केवल चैतन्यस्वरूप की प्राप्ति को मुक्ति मानते हैं । इसलिए ग्रन्थकार ने मुक्ति का स्वरूप बतलाया है ।। ११६ ||
१. मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्यदेतत्रो भवन्ति । ०लि० सटि० क० ) ( ब० ) ( ग० ) (१०) ( च० ) से संकलित -
२. व्यस्पासो विषयः । ३ संसारस्याप्रतिकूलत्वात् संसारम्य हितकर्तृत्वादित्यर्थः । ४. 'इन्द्रियेन्यानुवतित्वं' इति मु० ( क० ) प्रती पाठः ।