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बष्ठ आश्वासः
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इत्युपासकाध्ययने समस्तसिद्धान्तावकोपनो नाम प्रथमः कल्पः ।
महो धर्मारापने कमते वसुमतीपते, सम्यक्रम हिमाम नराणा महतो बल पुरुषदेवता' पिसह नेकमेष' ययोक्तगुणगुणतया संजातमशेषकस्मयकाला विषणतमा नरकादि गतिषु, पुष्पवायुषामपि मनुष्याणां षटमु तलपातालेषु', गष्टविधेषु व्यस्तरेषु, दशक्षिधेषु भवनशसिः पञ्चविषेषु ज्योतिष्क, प्रिविधासु स्त्रीषु, विमलकरणेषु पृथ्वीपयःपावकपवनकायिकेपु वनस्पतिषु च न भवति संभूतिहे: "1) साय िविवधारमाजवं नयीभावं, निपमेन संपादपति
कयित्वालम् उपलम्यात्मनश्यामों३ चारित्रे, १४ साधुसंपादनसारः संस्कार इव बौजेषु जन्मान्सरेपि न जहात्यात्मनोगुतिम् सिद्ध विचन्तामणिरिव च फसायसीम शामितानि, प्रतानि 1° पुनरौषधर इन फलपाकासानानि पायेय. नहीं है तो पुण्यवानों को स्वर्ग व पापियों को भी नरक-गमन नहीं होगा फिर आपके यहां मोक्ष कैसे संघटित होगा? अतः मुक्तास्मा का कवंगमन मानना चाहिए ॥ ५० ॥ इसका विशेष विस्तार करने के पर्याप्त है । इसप्रकार उपाराकाध्यवन में समस्त मतों के सिद्धान्तों का ज्ञान कराने वाला प्रथम कल्प समाप्त हुवा।
सम्पाप का माहात्म्य [श्री सुदत्ताचार्य मारिदप्त महाराज से कहते हैं ] धर्म की आराधना में अद्वितीय बुद्धिशाली हे राजन् ! निश्चय से सम्यग्दर्शन मनुष्यों के संरक्षण के लिए गृहदेवता या कुलदेवता-सीखा अधिष्ठाता है। क्योंकि तीनों सम्यग्दर्शनों में से एक भी सम्यग्दर्शन एकबार भी अपने गुणों को वृद्धिंगत करता हुआ प्राप्त हो जाता है तो पूर्व में समस्त पाप-बुद्धि से नरक-आदि दुर्गतियों में नहीं जाता। यदि सम्यक्त्व उत्पन्न होने के पूर्व में जिन पुरुषों ने नरक-आदि आयु बाँध ली है, उनकी नीचे के शर्कराप्रभा-आदि छह नरकों में, आठ प्रकार के घ्यन्तरों ( किन्नर व किंपुरुष-आदि ) में, इस प्रकार के भवनवासियों ( असुर व नाग-आदि ) में, पाँच प्रकार के ज्योतिषी देवों ( सूर्य व चन्द्र-आदि ) में, तीन प्रकार की स्त्रियों में, विकलेन्द्रियों में, पृथ्वोकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक व वनस्पत्तिकायिक इन पांच प्रकार के स्थावर ( एकेन्द्रिय) जीवों में उत्पत्ति नहीं होती ।) अर्थात्-उत्लन्न हुआ सम्यक्त्व इन गतियों में उत्पत्ति का कारण नहीं होता। यह संसार को सान्त कर देता है । यह चरित्र-पालन में अपूर्व बुद्धि उत्पन्न करता है । अर्थात-कुछ समय के बाद उस आत्मा के सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र अवश्य प्रकट हो जाते हैं। जैसे बीजों में अच्छी तरह से किया गया संस्कार बीजों को वृक्षरूप पर्यायान्तर होने पर भी वर्तमान रहता है वैसे हो सम्यक्त्व जन्मान्तर में भी आत्मा का अनुसरण करता है, उसे छोड़ता नहीं है। यह प्राप्त हुए चिन्तामणि-सरीखा असीम मनोरथ पूर्ण करता है। नत ( चारिश ) तो आत्मा को वैसा फल देकर समाप्त होने वाले ( स्वर्ग में भोग-आदि देकर पश्चात् वहां से पतन करानेवाले ) होते हैं जैसे औषधि वृक्ष फलों के पकने के बाद नष्ट होने वाले होते हैं और जैसे फलेवा
१. नरस्य रक्षणे अधिष्ठाता, गृहदेवता व कुलदेवतावच । २. एकवारं। ३. एकमेव मम्यक्त्वमुत्पन्न मत् गनासु गनिषु
उत्पत्तिकारणं न स्यायिस्यर्थः (प.)। उपयामादिश्याणां मध्ये बेदकमप्युत्पन्नं परन्तु तदाचगये राति माङ्गादीनां समी. चीनलया यः स्वितः स दुर्गति न जायते (ब) । ४. पूर्व पापबुद्धितया । ५. वद्धायुषामपि नराणां । ६. शर्कराप्रमादिपु उत्पत्ति भवति । ७. किंवरकिंपुरुषादिपु। ८. अमुरनागादिषु । १. चन्द्रार्कादिषु । १०. सम्यकत्यमुत्परं सत्
एतासु गतिपुत्पत्तिकारणं न स्यादित्यर्थः । ११. मर्गादासहितं करोति समारं। १२. सम्वत्यमेतत्काल प्राप्य । १३. अपूर्दा' मति सम्पादयति सम्यक्त्वं कर्तृ । १४ चीजम्प प्रक्षारानं दुग्यगुड़ादिमिनितजळेन संस्फरणं । १५. सह
गमनं। १६ प्रातः । १७. प्रतानि । १८. पाथेयवप्नियनबत्तीनि मंबलवत् समयदिवृत्तीनि-म्वगें भोगादिकं त्वापश्चात् सम्पूर्णे सति च्यानं कारयन्ति तेन सम्यक्त्वस्याधिको महिमा मोक्षं च दत्त ।