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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये तवा तिहतौ तस्य लपमस्येष बोधितिः । कर्य न कोमुषी सर्व प्रकाशमति बस्तु सत् ।।४।। वहाँ कवि सिई स्थानिस्तरङ्ग फुतवट न । घटनामाकाशे
.७५५।। अय मतम्
एक एव हि भूतात्मा देहे देहे व्यवस्थितः । एकपानेकष! वापि दृश्यते जलचन्द्रवत् ११४६।। तपयुक्तम् ।
एक: खेऽनेकधान्यत्र पपेन्युर्वेधते अनः । न तथा वेचते मा भेदेम्पोऽन्यस्वभा ॥४७॥ असमातिविस्तरेण ।
आनन्दो मानमैश्वर्य श्रीमं परमसष्मता । एतदारयन्तिकं यत्र स मोक्षः परिकीर्तितः ।।८।। ज्वालोगफजादेः स्वभावाबूवंगामिता । नियता च यथा दृष्टा मुक्तस्यापि तात्मनः ॥४९॥ तथाप्य तदापासे पुष्पपापात्मनामपि । स्वर्गभ्रागमो म स्यावलं लोकान्तरेण से ।।५।।
है, क्योंकि जब तक पृथिवी कापिक-आदि जोत्र पृथिवी-आदि रूप पुद्गलों को अपने शरीर रूप से ग्रहगा करता है तब तक उनमें बुद्धि रहती है, परन्तु मरण होने पर उन्हें छोड़ देता है, अतः जोब के वियुमत है। जाने पर उन पृथियो-आदि रूप पुदगलों में बुद्धि का सर्वथा अभाव हो जाता है, इसमें तो सिर साध्यता है || ४३ ।। बुद्धि के ऊपर से कर्मों का आवरण हट जाने पर आत्मा को उत्पन्न हुई केवलज्ञान-शक्ति क्या समस्त वस्तुओं को वैसी प्रकाशित्त नहीं कर सकती? जैसे सूर्य अपने ऊपर का आवरण ( मेघपटल ) हट जाने पर अपनी रोशनी से क्या समस्त पदार्थों को प्रकाशित नहीं कर देता ? ॥४४॥
१४. अव ब्रह्माद्वैतमत की मीमांसा करते हैं यदि आप केवल एमा प्रह्म ही मानते हैं तो वह निस्तरङ्ग-निर्विकल्प (मेद-रहित ) क्यों नहीं है ? अर्याद-यह लोक उससे भिन्न रूप क्यों प्रत्यक्ष प्रतीत होता है ? और उस प्र में यह जगत क्यों वैसा लीन नहीं होता जैसे घट के फट जाने पर घट के द्वारा ईका हा आकाश आकाण में लोन हो जाता है ॥ ४५ ॥ ब्रह्मादेतवादियों का पूर्वपक्ष-वास्तव में ब्रह्म एक हो है परन्तु भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीरों में पाया जाने से वैसा अनेक रूप मालूम पड़ता है जैसे चन्द्र एक होकर के भी जल में प्रतिविम्बित होने पर पात्र-भेद से अनेक प्रतीत होता है ॥ ४६ ॥ उक्त मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि आपका जलचन्द्र का दुष्टान्त विषम है, क्योंकि जैसे आकाश में वर्तमान चन्द्रमा मनुष्यों से एकरूप भीर जलादि में वर्तमान अनेक रूप भी प्रत्यक्ष देखा जाता है वैसे ही प्रत्यक्ष प्रसोत होने वाले अनेक पदार्थों से स्वतन्त्र एक रूप ब्रह्म प्रत्यक्षआदि प्रमाण द्वारा प्रतीत नहीं होता ।। ४७ || अस्तु अब इस प्रसङ्ग को यहीं समाप्त करते हैं।
मोदास्वरूप---जहाँ पर अबिनाशी सुख, ज्ञान, ऐश्वर्य, बीर्य और परम सूक्ष्मत्व-आदि गुण पाये जाते हैं, उसे मोक्ष कहा गया है । ४८ ॥ जेसे अग्नि की ज्वाला और एरण्ड-बोज-आदि पदार्थों का ऊर्ध्वगमन निश्चित देखा गया है वैसे हो समस्त कर्म-बन्धनों के क्षय हो जाने पर मुक्तात्मा का भी स्वभावत: ऊर्ध्वगमन निश्चित किया गया है ।। ४९ ।। यदि यही माना जावे कि मुक्त होने पर आत्मा यहीं रह जाता है, कहीं जासा
१, तवत् कर्ममंश्लेपै मति केवलज्ञानं नोत्पद्यते कर्मनिचलेपेतु केबलशान भवत्येव । २. यदि एक ब्रह्म वास्ति
तहि अयं लोक. पुथक् किं दृश्यते ? ३. निर्विकल्पं । ४. तत्रैव ब्रह्मणि कथं म लीयो ? ५. 'लीयते' इति. ह. लि. फ० प्रती पाटः । ६. 'ज्वालालावुफबीजादेः' इति ह. लि. च. प्रती पाठः । ७. ते तव मते यदि पुण्यवता स्वर्गो न पावतां च नरको न भवति तहि मोक्षः कथं भवति ।