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पंचम आश्वास:
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पन्नमसत् । कित्यहमेषिधे कर्मण्यवापि गुरुणाम्यनुमानसमावतेनो न भवामि । सदहि । गम्यावः शरणागसजनमनोरयानुकूल सत्पाबमूलम् । राजा-(स्वगतम् । ) महो प्रानचर्यम् । यतः ।
महं प्रजानां मम बेपतेनमेसन नमस्र्थव तपास्य मान्यः ।
गुवस्तदर्थान्तरगा महत्ता वेश्येव दूरं समुपागतेपम् ।।१५१।। (प्रकाशम् । ) मुनिकुमार, असं विलम्बितेन । एतहि प्रतिष्ठावहे तं भगवन्तं भवन्समुपासितुम् ।
यः पाद्वायपि सर्वयोक्तिकनयक्षोदक्षमैतिशयोकिनन्यभराशयोऽपि जगतः सर्वायंसिद्ध घाश्रयः । वृष्टावण्टफलप्रसूतिपरितोऽप्याप्तश्च मध्यस्थतामात्मस्थोऽपि समस्तगः स भवतः श्रेयस्को लाजिमनः ।।१५२१॥ मालकालव्यालेन ये लोडाः सांप्रतं तु ते। शम्याः श्रीसोमवेवेन प्रोत्थाप्यन्ते किमद्भुतम् ॥१५३।।
पदार्थ ( पूज्य सुदत्तश्री ) में यह दूरवर्ती महत्ता ( महज्जू ) वैसी एक स्थान ( सुदत्तश्नी ) में स्थित हुई है जेसे वेश्या एक स्थान में स्थित होती है ।। १५१ ॥' तदनन्तर मारिदत्त राजा ने स्पष्ट रीति से कहा-हे मुनिकुमार! विलम्ब करने से कोई लाभ नहीं है, अतः अब हम दोनों उस भगवान् लपस्वी सुन्दसाचार्य की उपासना करने के लिए प्रस्थान करें। ऐसा वह जिनेन्द्र आपके पाल्याण की प्राप्ति के लिए होवे । जो स्याद्वादी ( 'स्यात्' इस अक्षर मात्र को कहनेवाला) हो करके भी जिसका आगम शान ममस्त युक्ति-युक्त नयों को परीक्षा या अनुसन्धान करने में समर्थ है। यहाँ पर उक्त कथन विरुद्ध प्रतीत होता है, क्योंकि जो केवल 'स्यात्' इस अक्षर मात्र का कहने वाला होगा, उसका आगम ज्ञान समस्त युक्तियुक्त नयों के अनुसन्धान करने में समर्थ कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो स्याद्वादी ( अनेकान्त दर्शन का निरूपण करनेवाला ) है और निश्चय से जिसका आगमज्ञान समस्त युक्ति-युक्त नयों के अनुसन्धान करने में समर्थ है । नैषिकचन्यभराराय (विशेष दरिद्रता-युक्त चित्तवाला) हो करके भी संसार को सर्वार्थसिद्धि का आश्रय ( समस्त धन प्राप्ति का सहारा) है। यहां पर भी विरोध प्रतीत होता है। क्योंकि जो विशेष दरिद्र है वह लोगों की समस्त धनप्राप्ति का आश्रय कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो नैष्किनन्य भराशय (जिसका अभिप्राय परिग्रह-त्याग की विशेषताशाली ) है और जो निश्चय से संसार को सर्वार्थसिद्धि का आश्रय (समस्त इष्ट प्रयोजनों (स्वर्गादि) की सिद्धि का आनय ) है | जो दृष्टादष्टफलप्रसुतिचरित ( जिसका अभिप्राय या चित्त ऐहिक व पारलौकिक फलों ( सुखों) के उतान करने में समर्थ । है, ऐसा होकर के भी जो मध्यस्थता ( उदासीनता) को प्राप्त हुआ है। यह करन भी विरुद्ध प्रतीत होता है, क्योंकि जो लौकिक व पारलौकिक सुखों को उत्पन्न करने में समर्थ चेष्टावाला होगा, वह उदासीन कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो लौकिक व पारलौकिक सुखों के उत्पन्न करने के अभिप्राय वाला है और निश्चय से मध्यस्थता ( वीतरागता) को प्राप्त हुआ है। जो आत्मस्थ शरीर परिमाण आत्मप्रदेशों वाला) होकर के भी समस्त पदार्थों में व्यापक है। यहाँ पर भी विरोध मालूम पड़ता है, क्योंकि जिसकी आत्मा के प्रदेश शरीर वरावर होंगे, यह आकाश की तरह व्यापया ( सर्वत्र विद्यमान ) कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो आत्मस्थ (आत्मस्वरूप में लीन ) है और निश्चय से सर्वग ( केवल ज्ञान से समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जानने के कारण व्यापक ) हे ॥ १५२ ।।
जो शब्द कुटिल कलिकाल रूपी कृष्णसम से से भए थे, वे मूच्छित ( अप्रयुक्त ) क्षाब्द श्री सोम देव सरि द्वारा अथवा पक्षान्तर में अमृत बुष्टि करने वाले चन्द्र द्वारा उठाए जाते हैं-प्रयोग में लाए जाते हैंपक्षान्तर में पुनरुज्जीवित किये जाते हैं इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ।। १५३ ॥ चिरकाल से शास्त्ररूपी समुद्र के