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मस्तिलकचम्यूकाव्ये संतितशिक्षण प्रणम्यानाकुलममा प्रत्याक्षिप्तभ्याोपमाः परलोकोपापपरामर्शपवित्रप्रकृतिः शुभवाश्रवणप्रहणधारषिक्षा नोहापोहत स्वाभिनिषेशपेशलमतिः सुवसभगवन्तमभयघिमिरचितापसोवन्तमे किलामाषत'मगवन,
धर्मास्किलप जन्तुर्भवति सुखी भगति स - पुनर्थमः । किरूपः किभेदः किमुपायः फिफलश्च जाऐत ॥४॥ भगबानाह-'राजन्, समाकर्णय ।
यस्मादभ्युदयः पुंसां निःश्रेयस फलाश्रयः । वन्ति विविताम्नायास्तं धर्म धर्मसूरयः ॥५॥
स' प्रवृत्तिनिधृस्यात्मा गृहस्थे तरगोचरः । प्रवृत्तिर्मुक्तिहेतौ स्यानिवृत्तिभवफारणात् १" ॥६॥ राजाह-कि पुनभंगवामुक्तः कारणम्, कि घसंसारस्य, को वा गृहामिणां धर्मः, कश्न संयमिलोकस्य ।' खिलो कलियों भारीखा था। फिर निराकुल मनोवृत्तिवाले व चित्त-ब्याकुलता एवं पाप-प्रवृत्ति निगकृत ( त्यक्त ) करनेवाले तथा पारलौकिक उपाय की विचारधारा से पवित्र प्रकृति वाले मारिदत्त महाराज ने, जिसकी बुद्धि, शुश्रूषा ( शास्त्र व शिष्ट पुरुषों के हितकारक उपदेश को श्रवण करने की इच्छा ), श्रवण ( हितोपदेश का सुनना), ग्रहण (शास्त्र के विषय का उपायान, धारण । शास्त्रादि के विषय की भूलना), विज्ञान (अनिश्चय, सन्देह ( संशय ) व विपरोत ज्ञान इन मिथ्याशानों से रहित यथार्थज्ञान होना ), कह (निश्चित धूम-आदि पदार्थों के आधार ( ज्ञान ) से दूसरे अग्नि-आदि पदार्थों का उसी प्रकार निश्चय करना ), अपोह ( महापुरुषों के उपदेश और प्रवल युक्तियों द्वारा प्रकृति, ऋतु व शिष्टाचार से विरुद्ध पदार्थों ( अनिष्ट आहार, विहार एवं परस्त्री-सेवन-आदि विषयों) में अपनी हानि या नाश का निश्चय करके उनका त्याग करना) एवं तत्त्वाभिनिवेशः (उक्त विज्ञान, कह और अपोह-आदि के सम्बन्ध से विशुद्ध हुए 'यह ऐसा ही है अन्य प्रकार नहीं है' इस प्रकार का दृढ़ निश्चय ) इन बुद्धि-गुणों से मनोज्ञ है, पूज्य सुदत्ताचार्य से, जिनके लिए अभयरुचि क्षुल्लक द्वारा अवसरानुकुल वृत्तान्त निरूपण कर दिया गया है, निश्चय से निम्न प्रकार प्रश्न किये ( धर्मविषयक जिज्ञासा को)
'भगवन् ? निश्चय से यह प्राणी धर्म से संसार में सुखी होता है, उस चर्म का क्या स्वरूप है ? और उसके कितने भेद हैं ? एवं उसकी प्राप्ति का क्या उपाय है? और उसका क्या फल है ? 11 ४॥
आचार्य राजन् ! श्रवण कीजिए । जिन सत्कर्तव्यों के अनुवान से मनुष्यों को स्वर्ग ( इष्ट शरीर, इन्द्रिय व विषयों की प्राप्ति लक्षणवाला और मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसे आगमवेता धर्माचार्य 'धर्म' कहते हैं ।। ५ ।। उसका स्वरूप प्रवृत्तिरूप और निवृत्तिरूप है। अर्थात्-मोन के कारणों ( सम्यग्दर्शन-आदि ) के पालन करने में प्रवृत्त होने को प्रवृत्ति और संसार के कारण ( मिथ्यादर्शनादि ) से बचने को निवृत्ति कहते हैं । वह धर्म गृहस्थधर्म और मुनिधर्म के भेद से दो प्रकार का है।६।।
राजा-'भगवन् ! मोक्ष का कारण ( मार्ग ) क्या है ? और संसार के कारण क्या है ? गृहस्य धर्म क्या है व मुनि धर्म क्या है ?
१. मुकुटीकुतमस्तकः । २. निराकृतचित्तव्याकुलत्वं पाप च। ३. विचारण। ४. अभिप्राय। ५. अभ्युदयः
इष्टशरीरेन्द्रियविषयप्राप्तिलक्षणः स्वर्गः। ६. निःश्रेयसं निखिलमलविलयलमणं । ७. आम्नायः आगमः । ८. सः धर्मः। ९ यति । १०. मिथ्यात्वानिवृत्तिः सम्यमत्वनतप्रवृत्तिरैव धर्मः ।।