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यशस्सिलकपम्पूकाव्ये भावाभिषानानां पयार्थानां भाषHषविजोषतन्त्रानानमात्रा पति ताकिकवैशेषिकाः, त्रिकालभस्मोद्ध्लनेज्या'
कप्रमानाप्रदक्षिणीकरणामविपनामिक्रियाकाणमात्राधिष्ठानावनामात्' इति पाशुपताः, 'सर्वपु पेयापेयभक्ष्याभक्ष्यादिषु निःशदूचित्तावृवृत्तास्' इति फुलापार्यकाः । तथा च "हिमामसोक्ति:- 'मदिरामोदरेश्ववनस्तर रसप्रसन्नवय: १सम्परावधिनिषेशितशतिः शाक्तिमुद्रातनवरः स्वयमुमामहेश्वरायपाणः कृष्णाया ''पाणीश्वरमारराषयेदिति । "प्रकृतिपुस्खयोविवेकमतेः स्यातेः' इति साधाः, नैरास्यादिनिहितसंभावनातो भावनातः' इति
बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, शब्द, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म, अधर्म से २.८ गुण ), सर्म (उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण च गमन ये ५ कर्म ), सामान्य (पर व अवर से दो सामान्य), विशेष ( निस्पवय-वृत्ति अनन्त विशेष पदार्थ ), समवाय ओर अभाव ( प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव व अन्योन्याभाव ये ४ अभाव ) इन सात पदार्थों के सदशधर्म व वेधर्म्य मलक शास्त्र संबंधी तत्त्वज्ञानमात्र से मोक्ष होता है।
३. पाशपतों-ौवा-को मान्यता है कि 'प्रातः मध्याहच सायंकाल भस्म लगाना. शिवलिङ्ग की पूजा करना, गडुक-प्रदान ( मुख के भीतर बधारो के शब्द का अनुकरण करना अयत्रा शिव लिङ्ग के सामने जल-पात्र को स्थागित करना , काश ओर से शिव-निजको प्रदक्षिणा करा ९५ आत्म-बिडम्बन ( पंचाग्नि तपश्चर्या-आदि ) आदि क्रियाकाण्ड मात्र के अनुष्ठान से मोक्ष होता है।'
४. कुलाचार्यवों ( कोल मार्गानुयायियों) ने कहा है कि 'समस्त पीने योग्य, न पीने गोग्य, खाने योग्य, न खाने योग्य पदार्थों के खाने पीने में निशक चित्तवृत्ति पूर्वक प्रवृत्ति करने से मुक्ति प्राप्त होती है। कोलमत (सांख्यमत ) का कथन यह है कि ऐसा मानव मुक्ति प्राप्त करता है, जिसका मुख मद्य की सुगन्धि से सुगन्धित है, जिसका हृदय मांस-रस से प्रसन्न है, जिसने अपने वाम पावभाग में शक्ति ( स्त्रो-शक्ति । स्थापित की है, जो स्त्रीशक्ति, मुद्रा ( योनि मुद्रा ) व आसन का धारक है और जो स्वयं उमा (पार्वतः परमेश्वरो) व महेश्वर-( श्री शिव ) सरीखा आचरण कर रहा है, एवं जिसे मद्य-पान से उमा व श्रीशिव की आराधना करनी चाहिए।
५. सांख्यदर्शनकार की मान्यता है कि प्रकृति ( महान् ( बुद्धि ) व अहंकार एवं इन्द्रिय-आदि तत्वों का उत्पादक अचेतन (प्रधान पदार्थ) और पुरुष ( चैतन्यरूम आत्मा ) के भेदकान से मुक्ति होती है। भावार्थप्रस्तुत भेदज्ञान की प्राप्ति के लिए महान, अहंकार व इन्द्रियादि तत्वों का, जो कि प्रकृति के परिणामभूत हैं, संकलन किया गया है। अन्यथा पुरुष (आत्मा) की उपाधिरूप बुद्धि, मन, प्राण व शरीर-आदि से आत्मा में भेद ज्ञान भली भांति नहीं जाना जा सकता। अतः प्रकृति व पुरुष का अभेद ज्ञान ही संसार है और इन दोनों के भेद ज्ञान से मुक्ति-लाभ होता है ।
६. वृद्ध के शिष्यों ( माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक व वैभाषिक भेद से चार प्रकार के बुद्धमतानुयायियों ) ने कहा है, आत्मशून्यता-आदि तत्त्वों को शास्त्रनिरूपित अभ्यास वाली भावना से मुक्ति होती है। भावार्थ-बौद्ध सबै क्षणिक क्षणिक, दुःखं दुःखं, स्वलक्षणे स्वलक्षणं, शून्यं शन्यमित्ति इस प्रकार भावना
१. दम्प ९, गुण २४, कर्म ५, सामान्य २, समवाय १, असमः पदार्थः, पदार्याभानस्प। : नगालक्षण । ३. पूजा। ४. गाठींचान गाड़ टालनुवा ? ५. कतंत्र्यात् । ६. फौलाः । ७. सांख्यः। ८. मयन । ... सरस । १०. मांसं। ११. बाम । १२. स्त्रीशक्तिः । १३. योनिमुद्रा । १४. मदिरया । १५. ईश्वरं ।