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षष्ठ आपवासः
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बशबल 'शिष्याः, 'अङ्गाराञ्जनादिवरस्वभावादेव कालुष्पोत्कर्षप्रवृतस्य वित्तस्य न कुतविचद्विशुद्ध चित्तवृत्ति:' इति जैमिनीयाः, 'सति षमणि धर्माविश्वन्त्यन्ते ततः परलो किनोऽभावार परलोकाभावे कस्यासी मोक्षः' इति समवाप्तसमस्त नास्तिकाधिपत्याः बार्हस्पत्याः", "परम ब्रह्मवनावशेष भेदसंवेदना “विद्याविनाशात्' इति बेबान्तवादिनः,
'नैवान्सस्तत्व मस्तीह न वहिस्तस्वमखसा । विरगोचरातीतेः शूम्यता श्रेयसी ततः ।। ११ ।। ' चतुष्टय से मुक्ति मानते हैं। अर्थात् समस्त जगत् क्षणिक, दुःखरूप, स्वलक्षणात्मक व शून्यरूप है, इस प्रकार चार प्रकार की भावना से मुक्ति होती है ।
७. जैमिनीय ( मीमांसकविशेष ) कहते हैं कि जैसे स्वभाव से विशेष मलिन कोयला व अञ्जन-आदि पदार्थ किन्हीं उपायों से विशुद्ध नहीं हो सकते वैसे ही स्वभाव से विशेष मलिन आत्मा को मनोवृत्ति भी किन्हीं उपायों ( तपश्चर्या आदि ) से विशुद्ध नहीं हो सकती ।
८. समस्त नास्तिकों का स्वामित्व प्राप्त किये हुए बृहस्पति के अनुयायियों ( चार्वाक मतानुयायियों ) ने कहा है कि 'जब धर्मी ( आत्मा आदि पदार्थ ) स्वतन्त्ररूप से सिद्ध होता है तब उसके धर्मों (ज्ञानादिगुणों ) का विचार किया जाता है परन्तु जब परलोक में गमन करने वाले आत्मद्रव्य का अभाव है तब परलोक का भी aara de मुक्ति किसे होगी ? भावार्थ - प्रस्तुत दर्शनकार 'देह एवात्मा नदतिरिक्तस्यात्मनोऽदर्शनात्' अर्थात् शरीर को ही आत्मा मानता है, क्योंकि उससे भिन्न आत्मद्रव्य की प्रत्यक्ष से प्रतीनि नहीं होती । उसकी 'मान्यता है कि यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोवरः । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ १ ॥
अर्थात् तपश्चर्या आदि क्लेशपूर्वक जीने से भी मृत्यु अवश्यम्भावी है, अतः उसका कष्ट उठाना व्यर्थ है, इसलिए जीवनपर्यन्त सुख भोगों । शङ्का - जन्मान्तर में विशेष स्थायी सुख की प्राप्ति के लिए तपश्चर्या का कष्ट सहन उचित है। उत्तर -- जब शरीर हो आत्मा है और वह मरणकाल में भस्मीभूत हो चुका है, उसका पुनरागमन कैसे हो सकता है ? अर्थात् न परलोकगमन है और न जन्मान्तर-प्राप्ति सिद्ध है तब निरर्थक तपश्चर्या का क्लेश सहन क्यों किया जाय ? इत्यादि ।
९. वेदान्तवादियों ने कहा है कि परब्रह्म के दर्शन होने से समस्त मेदज्ञान करानेवाली अविद्या माया - अज्ञान ) के विनाश से मुक्ति होती है । अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से 'विप्रचाण्डालादिवर्णावणंसारनिःसारपदार्थपरिज्ञानं सा अविद्या' अर्थात् ब्राह्मण व चाण्डाल आदि उच्चवर्ण व नीचवर्ण के समस्त मानव-आदि पदार्थों में क्रमश: सार व निस्सार रूप भेदज्ञान प्रकट करना हो अविद्या है। उसके नाश से परब्रह्म का दर्शन होना हो मोक्ष है ।
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भावार्थ- 'मूलाज्ञाननिवृत्ती स्वस्वरूपाधिगमो मोक्षः', अर्थात् सत्यरंजतमोमय जगत को मूलकारण अविद्या ( अज्ञान ) की निवृत्ति होने पर ऐसे परब्रह्म के स्वरूप का बोध होने से मुक्ति होती है, जो कि सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म, अर्थात् जो सत्य, चिद्रूप व अनन्त है। शाङ्करभाष्य में भी कहा है।
१. दशवलो बुद्धः । ★ न कुत्तधिय द्विशुद्धिरितिजैमिनीया:' ( क ) । २. त्रात्मनि । ३. आत्मनः । ४. चार्वाकाः । ५. विचाण्डालादिषण त्रिर्णसार निःसारपदार्थपरिज्ञानं सा अविद्या तस्या विनाशात् । ६. विचाररहितत्वातु ।
७. तथा च शाङ्करभाष्यं -- अविद्यास्तमयो मोक्षः सा च वन्य उदाहृतः ।
अर्थात् अविद्या ( अज्ञान माया ) की निवृत्ति मोक्ष हैं और अत्रिया ही बन्ध है। सर्वदर्शन संग्रह ० ४०२ से संकलित — सम्पादक
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