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पशस्तिलकचम्पूकाव्ये इति पश्यतोहराः प्रकाशितशून्यकान्ततिमि शाक्यविशेषाः, लया 'ज्ञानमुखःखेस्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काराणा नवसंख्याबसराणामात्मगुणानामत्पन्तोन्मुक्ति तिति काणावाः । सयुक्तम्
वहिः अरोरासन पमात्मनः संप्रतीपते । उक्तं तवेव मुक्तस्य मुनिमा कणभोजिना ।। १२ ।' 'निराश्रय चित्तोपासलक्षणो मोक्षमणः' इति तामागता;" । तयुक्तम्
दिशं न कोचिद्विरिश न कांचिलवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । बोपो यथा निवृति मम्मुपेतः" स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।। १३ ।। विशं न कांचिद्विविशं म कांचिन्नवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । जोबस्तथा निति मभ्युपेतः मलेशशक्षयास्केवलमेति शान्तिम् ।। १४ ।।
प्रत्यक्ष-प्रतील वस्तु का अपहरण करने वाले व सर्वथा शुन्यतारूपी एकान्त अन्धकार को प्रकाशित करने वाले माध्यमिक बौद्धों ने कहा है-'इस लोक में निश्चय से न तो कोई अन्तरङ्गतत्व (आत्मा-आदि पदार्थ) है और न बाह्मतत्व ( घट-पटादि ) है, क्योंकि प्रस्तुत दोनों तत्व विचार-रहित हैं। अतः शून्यता ही कल्याण करने वाली है । अर्थात् सून्यतत्व की भावना से ही मुक्ति होती है ॥ ११ ॥
भावार्थ-यद्यपि बुद्धदर्शन के प्रवर्तक भगवान् बुद्ध एक ही थे परन्तु उनके शिष्यों की बुद्धि के भेद से उनके चार भेद हो गये हैं 1 माध्यमिक, योगाचार, मौत्रान्तिक व वेभाषिक | और ये क्रमशः सर्वशून्यता, बाह्मार्थशून्यता, वाह्मार्थानुमेयत्व और वाह्यार्थ प्रत्यक्षवाद मानते हैं | जैसे 'गतोऽस्तमः, ( सूर्य अस्त हो चुका है ) ऐसा कहने पर जैसे जार, चोर और अनूचान ( वेदवेत्ता ) क्रमश: अभिसरण, परमव्यापहरण एवं सदाचार-पालन का समय निर्णय करते हैं वैसे ही प्रस्तुत चारों ( माध्यमिक-आदि ) 'सर्व क्षणिक क्षणिक, दुःखं दुःखं, स्वलक्षणं स्वलक्षणं, शून्यं शून्यं ,ऐसी भावना-चतुष्टय से मुक्ति मानते हैं।
उनमें माध्यमिक बौद्धों का कहना है कि जब समस्त जगत् क्षणिक, दुःख, स्वलक्षण व शून्यरूप है तब उसमें स्थिरशीलता, मुख, अनुगतत्व (द्रव्यता) व सर्वसत्यता का अभाव सुतरां सिद्ध हो गया, ऐसा होने से आखिर में सर्व शून्यता ही सिद्ध होती है, अतः इसकी भावना से मुक्ति होती है। । कणाद ऋषि के अनुयायियों की मान्यता है कि ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्ग व संस्कार इन नौ आत्मिक गुणों का अत्यन्त उच्छद ( नाश ) होना ही मुक्ति है।
वैशेषिकदर्शन में कहा है--'आत्मा का शरीर से वाह्यप्रदेश ( आकाश ) में जो स्वरूप (निर्गुण-जड़रूप) प्रतीत होता है । अर्थात्-जैसे शरीर-स्थित आत्मा में उक्त सुख-आदि गुण पाये जाते हैं, परन्तु शरीर से वाह्यप्रदेश ( आकाश ) में वत्तंमान आत्मा में उक्त सुखादि गुण नहीं होते । अतः वाह्यप्रदेश में उसका स्वरूप उक गुणों से रहित ( निर्गुण-जड़रूप ) है वही स्वरूप कणाद मुनि ने मुक्त आत्मा का बतलाया है ।। १२॥'
वौद्धों की मान्यता है कि निरन्वय ( सन्तान-रहित ) चित्तक्षण को उत्पत्ति लक्षाणबाला मोक्षक्षण ( पदार्थ है। कहा भी है-जैसे बुझता हुआ दीपक न किसी दिशा ( पूर्व-आदि) को जाता है न किसो विदिशा (ऐशान-आदि), को जाता है और न पृथिवी व आकाश की ओर जाता है, किन्तु तेल के नष्ट हो
- - - -. -- १. वौद्धास्तेशेप त्रिप्रकाराः सन्ति । २. आगाणं जडतारू। ३. आत्मनः । ४. निराश्रयं निरन्वयं । ५. नाथागता: बौद्धाः। ६. विनाकां । ७. प्राप्तः।८. दीपवन स्थानरहित: मोक्षावसरः । १. अनित्यभावनया दुःखाय विनासो भवति । 1. देखिए सर्वदर्शन संग्रह पृ० १९, व पु. २९ । १. देखिए रावदान संग्रह --उपोद्घात प्रकरण पृ० ५३ ।