Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पार आश्वासः
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भेवोऽयं पविता स्माविश्य जगतः कुतः । जन्ममृत्युसुप्तप्रायलिवतर्मामतिभिः ॥३३॥ शून्य तस्यमहं वादी साधयामि प्रमाणतः । इस्मास्यायो विचक्षधेत सर्वशून्यस्ववाविता ||३४॥
इसी प्रकार 'रक्षादृष्टे:--कोई मरकर राक्षस होता हुशा देखा जाता है । अर्थात्--ऐसा सुना जाता है कि 'अमुफा का पिता-वगैरह मरकर श्मशान भूमि पर राक्षस हो गया'। फिर भला गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त ही जीवको माना जावे तो वह गरकर राक्षस-व्यन्तर कैसे हुआ? निष्कर्ष-इस युक्ति से आत्मा का भविष्य जन्म सिद्ध होता है।
इसी प्रकार-'भवस्मृतेः-किसी को अपने पूर्वजन्म का स्मरण होता है। अर्थात्-पदि गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त ही जीव माना जाये तब जन्म से स्मृति-वाला मानव क्यों ऐसा कहता है ? कि में पूर्वजन्म में अमुक नगर में अमृक कुटुम्ब में इस प्रकार था ? निष्कर्ष-प्रस्तुत युक्ति से भी जीव का पूर्वजन्म सिद्ध होता है।
शङ्का--जब यह जीव शरीराकार परिणत पृथिदी-आदि चार तत्वों से उत्पन्न हुआ है तब उसे गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त सरीर रूप ही मानना उचित है ] इसका समाधान-'भूतानन्धयनात्'- यह जीव उक्त अचेतन पृथिवी-आदि तत्वों से उत्पन्न हुआ नहीं है, क्योंकि इसमें पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन अचेतन ( जड़ ) पदार्थों का अन्वय ( सत्ता मौजूदगी ) नहीं पाया जाता।
भावार्थ-ऐसा नियम है कि उपादान कारण का अन्वय कायं में पाया जाता है। जैसे मिट्टी से उत्पन्न हुए घट में मिट्टी का ओर तन्तुओं से उत्पन्न हुए वस्त्र में तन्तुओं का अन्वय ( सत्ता ) पाया जाता है । वैसे ही यदि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन अचेतन पदार्थों से जीव को उत्पत्ति हुई है तब तो पृथिवीआदि की अचेतनता-जड़ता-का अन्वय जीवद्रव्य में भी पाया जाना चाहिए। परन्तु उसमें ऐसा नहीं है। अर्थात्-जीवद्रव्य में अचेतन पृथिवी-आदि भूतचतुष्टय का अन्वय नहीं पाया जाता । अतः जीवद्रव्य की पृथिवी आदि से उत्पनि मानना युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इनके स्वरूप ( अचेतनता ) से जीवद्रव्य का स्वरूप (विज्ञान व सुख-आदि युक्तत्व) बिलकुल पृथक् है । अतः स्वरूा भेद से जीवद्रव्य स्वतन्त्र चेतन पदार्थ है और इसी तरह जन्म पत्रिका में लिखा जाता है कि 'इस जोव ने पूर्वजन्म में जो शुभाशुभ कर्म किये हैं, ज्योतिष शास्त्र' उसके उदय को वैसा प्रकट करता है जैसे अन्धकार में वर्तमान घट-पटादि पदार्थों को दीपक प्रकाशित करता है।
निष्कर्ष-ज्योतिषशास्त्र द्वारा भी जीव का पूर्वजन्म सिद्ध होता है एवं प्रस्तुत लोक की वह युक्ति जीवद्रव्य को पृथिवी-आदि से भिन्न स्वतन्त्र सिद्ध करती है ।३।।
अब वेदान्तवादियों के मत की समीक्षा करते हैं यदि आप ब्राह्मण व चाण्डालादि वर्गावणं भेद को अथवा जगत-भेद को अविद्याजन्य (अज्ञान-जनित ) मानते हैं तब प्रमाणसिद्ध जन्म, मृत्यु व सुखप्राय पर्यायों से जगत् में विचित्रता ( भेद ) कहाँ से हुई ? अर्थात्-अमुक का जन्म हुआ, अमुक की मृत्यु हुई, अमुक सुखी है और अमुक दुःखी है। इन प्रमाण-प्रसिद्ध पर्यायों से जब सांसारिक प्राणियों में भेद प्रमाण प्रसिद्ध है तब उसे अविद्या मानना भ्रम है ।। ३३ ।।
१०. अब आचार्य शून्यबादी माध्यमिक वीद्ध के मत की समीक्षा करते हैं जब आपने ऐसी प्रतिज्ञा १. मदुपनितमन्यजन्मनि शुभाभं तस्य कर्मणः प्राप्तिम् । व्यञ्जयति शास्त्रमेतत्तमसि द्रव्याणि दीप इव ॥ १ ॥
था.. उत्तमा०४ १० १३ ।