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षष्ठ आश्वासः
'बुद्धिमनोऽहंकारविरहावखिलेस्टियोपशमावहातमा ब्रण्टु स्पेऽवस्थान मुक्तिः' इति कापिला,' 'यथा घरिघटने घटाकाशमाकाशीभवति सपा वेहोसवात्सर्गःप्राणी परब्रह्माणि लीयते इति ब्रह्माहतवादिमः।
अज्ञातपरमार्थानामेवमन्येऽपि चूर्णयाः । मिष्यादृशो म गम्पन्ते आरपग्मानामिव द्विपे ॥१५॥ (स्वगतम् । }
प्रायः संप्रति कोपाप सन्मागमोपानम् । निलननाप्तिकस्पेक विशुद्धादर्शदर्शनम् ॥१६॥ युष्दान्ताः सन्त्यसंन्येयाः मतिस्तवशतिनो । किन कुर्युमही पूर्ता विबेकरहितामिमाम् ॥१७॥ बुरामहप्रहप्रस्ते विद्वान्यसि करोतु किम् । कृष्णपाषाणखण्डेषु मारवाय म तोयबः ॥१८॥
ईर्ते युक्तिः यवेषात्र तवेव परमार्पसत् । पड़ामुदीप्तियतायाः पक्षपातोऽस्ति न स्यचित् ॥१९॥ जाने से केवल शान्ति प्राप्त करता है वैसे ही निवृत्ति ( मुक्ति ) को प्राप्त हुआ आत्मा भी किसी दिशा, विदिशा, पथिवी भण्डल और आकाश को ओर नहीं जाता किन्तु [पूर्वोक्त सर्व क्षणिक क्षणिक-आदि चतुर्विध भावना से ] समस्त दुःखों का क्षय करके केवल शान्ति-लाभ करता है ।। १३-१४ ॥
कपिल ऋषि के अनुयायियों ने कहा है-'समस्त इन्द्रिय-वृत्तियों को शान्त करने वाला बुद्धि, मन व अहंकार का विरह ( संबंध-विच्छेद ) हो जाने से पुरुष ( आरमा) की अपने चेतन्य स्वरूप में स्थिति होना ही मुक्ति है।' भावार्थ-सांख्यदर्शनकार पुरुषतत्व ( आत्मा) को अकर्ता ( पुण्य पाप-कर्मों का बन्ध न करनेबाला । व असङ्ग (कमलपत्र सरीखा निर्लेप) व कूटस्थनित्य मानते हैं | जब यह प्रकृति-पुरुष के मेदविज्ञान से प्रकृति का संसर्ग-त्याग कर अपने ऐसे शान्त चैतन्य स्वरूप में अवस्थान करता है, जो कि शातृज्ञेयभाव से शून्य है । अर्थात्-उस समय किसी भी विषय का ज्ञान नहीं होता तव मुक्ति होती है ।
ब्रह्माद्वैतवादी मानते हैं कि-जैसे घट के फूट जाने पर घटाकाश ( घट से रोका हुआ आकाश ) आकाश में मिल जाता है वैसे ही शरीर के नष्ट हो जाने पर समस्त प्राणी परब्रह्म में लीन हो जाते हैं यही
[प्रस्तुत आचार्य ने मारिदत्त महाराज से कहा-हे राजन् ! ] जैसे जन्मान्ध मनुष्यों की हाथी के विषय में विचित्र कल्पनाएं होती है वैसे ही परमार्थ को न जाननेवाले मिथ्यामतवादियों की मुक्ति के विषय में अन्य भी अनेक मान्यताएं हैं, उनकी गणना करना भी कठिन है ॥१५॥ [ अब मोक्ष के विषय में अन्य मठों की मान्यताएं बतलाकर आचार्य मन में निम्न प्रकार विचार करते हैं-] आजकल मिथ्यादष्टियों के लिए सन्मार्ग का उपदेश प्रायः उनके वैसे कुपित करने के लिए होता है जैसे नक्टे को स्वच्छ दर्पण दिखाना उसके फुपित करने के लिए होता है ॥ १६ ॥ [ लोक में ] असंख्यात दृष्टान्त हैं, उन्हें सुनकर मानवों की बुद्धि उनके अनुकूल हो जाती है, अतः घूतं लोग उनकी सामर्थ्य से क्या इस पृथिवी तल के मनुष्यों को विवेक-शून्य नहीं करते? ।। १७॥ जैसे मेघ जल-वृष्टि से काले पत्थर के टुकड़ों में कोमलता नहीं ला सकता वैसे ही विधान :पुरुष भी खोटी हठरूपी ग्रह से ग्रस्त हुए पुरुषों को सन्मार्ग पर लाने के लिए क्या कर सकता है ? अपितु कुछ नहीं कर सकता ॥ १८ ॥ फिर भी लोक में युक्ति जिस वस्तु को सिद्ध करने के लिए प्राप्त होती है वही सत्य है। क्योंकि सूर्य के प्रकाश को तरह पुक्ति को किसी में पक्षपात नहीं होता ॥ १९॥
१. प्रवाहात् । २. शात्मनः। ३. साम्याः । ४. गाति । ५. युक्तः । *, देखिए यश च आ. ५ का श्लोक नं. ६२, 1. सर्वदर्शन संग्रह उपोदात दृ० ५३ से संकलित ।