Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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(प्रकाशम् । )
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
या योषितः श्रेयः संधयाय न केवला । बुभुतिवशात्परको जायते किमुवम्बरे ॥२०॥ पात्रा वंशाविवन्मन्त्रादात्नदोषपरिक्षणः । वृधमेत यदि को नाम कृती चिलश्येत संयमः ॥२१॥ वामनान्तरात्पूर्व पे दोषा भवसंभवाः । से पश्चादपि वृश्यन्ते तन्न सा मुक्तिकारणम् ॥२२॥ जानावमोऽर्थानां न तत्कार्यसमागमः । तर्षापकर्षयोगि स्याद्दृष्टमेवान्यथा पयः ॥ २३ ॥ ज्ञानहीने किया भितष्टिभिः ॥ २४॥
अथानन्तर प्रस्तुत आचार्य मारिदत्त महाराज के समक्ष पूर्वोक्त सैद्धान्त वैशेषिक आदि दार्शनिकों की मुक्तिविषयक मान्यताओं की समीक्षा करते हुए निम्न तीन मल्लोकों द्वारा सेद्धान्त वैशेषिकमत की मीमांसा करते हैं-- मुमुक्षु प्राणियों को तत्वार्थो की श्रद्धा मोक्ष प्राप्ति में समर्थ नहीं है। क्या सूखे मनुष्य की इच्छा मात्र से ऊमर फल पक जाते हैं ? अपि तु नहीं पकते । अर्थात् जैसे भूखे मनुष्य को इच्छा मात्र से कमर नहीं पकते किन्तु प्रयत्न से पकते हैं वैसे ही तत्वार्थों की श्रद्धामात्र से मुक्ति नहीं होती किन्तु सम्यक्चारित्ररूप प्रयत्न से साध्य है | २० | जैसे लॉक में मारण व उच्चाटन आदि मन्त्र पात्रावेश ( मनुष्यादि पात्रों में प्रविष्ट होकर ) कार्य-सिद्धि ( मारण व उच्चाटन आदि ) करते हैं वैसे हो यदि केवल वैदिक मन्त्रों की आना मात्र से आत्मिक दोषों ( मिथ्यात्व अज्ञान व असंयम ) के ध्वंस से मुक्ति होती हुई दृष्टिगोचर होवे सब तो लोक में कौन कुशल पुरुष दीक्षा धारण करके चारित्रपालन द्वारा मुक्तियों की प्राप्ति के लिए कष्ट सहन करेगा ? ॥ २१ ॥ जत्र दीक्षित पुरुषों में दीक्षा धारण के अवसर से पूर्व में जो सांसारिक दीप ( मिथ्यात्व, - अज्ञान व असंयम आदि ) वर्तमान में वे उनमें दीक्षा धारण के पश्चात् भी देखे जाते हैं, अतः केवल दीक्षा-ही मुक्ति का कारण नहीं है ॥ २२ ॥
भावार्थ-पूर्व में सेद्धान्त वैशेषिकों को मुक्ति-विषयक मान्यता का निरूपण करते हुए कहा है कि वे वैदिक मन्त्रों यतन्त्र ( यज्ञादि कर्मकान्डपद्धतियों ) की अपेक्षावाली दीक्षा धारण करने से और उन पर श्रद्धामात्र रखने से मोक्ष मानते है उनकी मीमांसा करते हुए आचार्य ने कहा है कि न केवल श्रद्धा से ही मोक्ष हो सकता है और न मन्त्र तन्त्र पूर्वक दीक्षा धारण करने से मोक्ष प्राप्त हो सकता है । क्योंकि जैसे प्रयत्न से कमर पकते हैं, न कि भूखे मनुष्य की इच्छामात्र से। वैसे हो लत्वार्थों की श्रद्धामात्र से मुक्ति नहीं होतो किन्तु सम्यक्चारित्ररूप प्रयत्न से साध्य है। इसी तरह दीक्षाधारण कर लेने मात्र से मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि दीक्षा धारण कर लेने पर भी यदि चारित्र धारण द्वारा सांसारिक दोषों के विनाश का प्रयत्न न किया गया सौ वे दोष दीक्षा धारण के पूर्व की तरह बाद में भी बने रहेंगे तब मुक्ति कैसे होगी ? इसी कारण कुशलपुरुष दीक्षा धारण करके संयम के पालन का कष्ट उठाते हैं। अतः केवल दीक्षा या श्रद्धा मोक्ष की कारण नहीं हो सकती ।। २०-२२ ॥
२. अब आचार्य तार्किक वैशेषिकमत की समीक्षा करते हैं
ज्ञान मात्र से पदार्थों का निश्चय हो जाता है परन्तु उससे अभिलषित वस्तु ( मोक्ष ) की प्राप्ति नहीं हो सकती, अन्यथा - यदि ज्ञान से अर्थ प्राप्ति होती है, ऐसा कहेंगे- - तब तो 'यह जल है' ऐसा ज्ञान मात्र होने पर प्यास को शान्ति होनी चाहिए। अभिप्राय यह है कि यदि ज्ञानमात्र से गदार्थ-समागम होता है तो ज्ञातमात्र जल, पान किये विना मी तृषाच्छेदक ( प्यास बुझाने वाला ) होना चाहिए ।। २३ ।।
१. अर्थ २. चेत् ज्ञानमात्रेण पदार्थस्य समागमो भवति तहि दृष्टं ज्ञातमात्रं जलं पानं विनापि तृषाच्छेदकं भवति ।