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पशस्तिलकचम्पूकाव्ये मृगमईकर मासित्तिललामलिपिविलोपिना विवस्वानुभछतापिपगुलश्याविच्छिन्नम्छायाशा लाग्नेनालंकृतिमसा फोहोरुम चार शुल: सिप फल परमरोऽम्युरितोषितवितिरहितकोतिस्तम्भनिभेवभिमां यचूना वंशः। तत्रावन्निखिललोकचिन्तामणीयमानचरणो रणोत्सवतारसिफसपनाङ्गनालोचनचन्द्रकान्तमणिप्रणालजलप्रवाहिनी
हारकिरणोवो वमोचिताचरणा नन्वितबिनीताबमीपालबारको चारकोपतरकरवालधिमिभिन्नारीभाम्भस्थलोछलन्मुक्ताफलनिकरतारफितरगमतलो नतलोक्षपालनडामणिमरीचिवलयालवालविलसत्कमाशोकपल्लवोः श्रीवि रामसीहै। जो तरल कस्तूरी से चारों ओर लिखो हुई मनोज्ञ लिपि (तिलकरूपो लिपि ) को तिरस्कृत करने वाले एवं विकसित पत्तोंवाले महान तमाल पत्रों के गुच्छों को निरन्तर कान्ति का घारक पौधा-सरीखे लाञ्छन (श्याम चिह्न) से अलंकृत है तथा जो क्षीरसागर का पुत्र है ।' अनोखे वंशवृक्ष-सरीखा जो ( यदुवंश) प्रतिपर्व-सम्पन्नफलपरम्परा बाला ( बांसवृक्ष के पक्ष में जो प्रत्येक पर्व ( गांठ) पर परिपूर्ण फल-समूह से व्याप्त हो करके भी उदितोदितविभूतिवाला ( अत्यधिक विभूति को उत्पन्न करने वाला ) है । यहाँ पर विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जब बाँस वृक्ष फलता है तब लोगों की लक्ष्मो-आदि नष्ट होतो है। अर्थात्-वंश वृक्ष के फलशाली होने पर उत्पात होता है । अतः जो प्रत्येक पर्व-गांठ-पर फलश्रेणी से व्याप्त होगा, उससे जनता को अत्यधिक विभूति कैसे मिल सकती है ? उसका परिहार यह है कि यह यदुवंश फलशालो होकर के भी विभूतियुक्त है। अर्थात्-जो प्रतिपर्व-सम्पन्न फलपरम्परा वाला (जिसे प्रत्येक पर्व-महोत्सव में पुण्यकर्म की फलपरम्परा ( सुख-श्रेणो) प्राप्त होती है और जो निश्चय से उदितोदित विभूति-युक्त ( दिनोंदिन वृद्धिगत धनादि विभूति से व्यास ) है।
उस यदुवंश में ऐसा चण्डमहासेन नाम का राजा था। जिसके चरण समस्त याचक-लोक के लिए चिन्तामणि सरीखें आचरण करते हैं। जो युद्ध के आनन्द में रसिक ( रुचि रखनेवाले ) शत्रुओं की स्त्रियों के नेत्ररूपी चन्द्रकान्त-मणियों के प्रणालॉ से जल प्रवाहित करने वाले चन्द्र का उदय ही है। जिसने जीवदया के योग्य आचरण से नम्रोभूत (सेवक) राजाओं की दाराएं ( पञ्जिकाकार के अभिप्राय से स्त्रियाँ व टिप्पणीकार के अभिप्राय से दारक-पुत्र ) आनन्दित किये हैं। जिसने विदारणशील विशेष तीक्ष्ण खड्ग से विदीर्ण किये हुए शत्रु-राजाओं के हाधियों के गण्डस्थलों से उछलते हुए मोतियों के समूह से आकाश तल को नक्षत्र-समूह से व्याप्त किया है। जिसको चरणरूपी अशोक वृक्ष को पल्लव-श्री ( शोभा ) नम्रीभूत राजाओं के चूडामगियों (शिरोरत्नों-मुकुटमणियों ) की कान्ति समूहरूपी क्यारो में शोभायमान हो रही है और जो ऐसे भुजारूपी
१. तिलकमेव लिपिः कस्तूरिकायास्तिलकं सरस्वती ललाटे घटते । २. विकसत्पत्रबहुलतमालपत्र टि० (ख)। ३. 'हस्वपापालिका क्षुपः इत्यमरः टिक (च)। ४. ईबृोन लाञ्छनेन सहिनेन । ५. मुद्रितः उपलक्षितः, यदूना
वंशश्चन्द्रमसा मुद्रित आचन्द्रमुपलक्षित उच्चस्तरत्वात यशश्चन्द्रे लग्न इव दृश्यते पूर्व यदनां सोगवंश इत्यर्थः । ६. महोत्सवं प्रति परिपूर्णफलपरम्पर: लोकानां दातृगुणेन, पर्श यदा वंशः वेणुस्तस्य पर्वाणि यया फलानि फलन्ति तदा
उत्पात एव स्यात्, यदा बंशवृक्षः फलति तदा लोकानां ट्रन्यादिकं विनश्यति, वश फलिते उत्पातः स्यादयं तु यदूनां
वंशः फलितोऽपि विभूतिमानित्यर्थः । ७. निदने षनाणां दि० ख० । 'भिदुः घुणकीटाः' इति पम्जिकाकारः । ८. यदुवंशे । ९. चंद्रमहासेन रागाऽभवत् । १०. नीहारकिरणश्चन्द्रः। ११. जीवदया। १२. आनन्दिताः
सेवकन पपुत्राः येन सः। १३. विदारणशील । १४. बिनामा । 1. उपमालंकारः। 2. उपमालंकारः । ।, विरोधाभास-अलंकारः। 4. उपमालंकारः। 5. रूपकालंकारः। 6. काल्पलिङ्गालंकारः। 1. उत्प्रेक्षालंकारः। 8. रूपकालंकारः।