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षष्ठ आश्वासः
( उपासकाध्ययन )
वेलेब
श्रीमानत्रान्तरे पूरिः सुतोऽयमबोधतः । युयुध्वा तमाम संयमधीः स्वयम् ॥ १ ॥ तत्रागमान्मुनेर्मान्यात्सभा चुलोभ मूभुवः । एश्नाकरस्य पार्वणेन्दुसमागमात् ॥ २ ॥ विषाय विधिवरे सपर्या तत्र भूपती । आसीने सत्युवाचेदमसौ दारकः ॥ ३ ॥ भगवन्, afer as "कारान्तराल+खेलल्लेलिहाने शानकपर्वच न्छन मालवलाय मानभन्दा किनौ जलकेलिकलहंसेन सुरसुन्दलोचनचकोरकुलसंतर्व " णापितामृतासारसृष्टिना "सरस्वतील वणती पोपासनतापसेन "मनोजविनया जंनावजितजन्मना रजनिवल्लरी कुसुमस्तबकसुम्दरेष 'त्रिदिवदधिकार्जुनाम्बुजकुजविजयिपूर्तिना कौस्तुभैरे रावतपादि आलामृतेवि रासोवरेण
इस अवसर पर श्रुतज्ञान आदि अन्तरङ्ग व धर्म सभा आदि बहिरङ्ग लक्ष्मी से सुशोभित श्री 'सुदत्त' नाम के आचार्य ने अवधिज्ञान से उस चण्डमारी देवी के मन्दिर में उनका ( अपने मुनि संघ शुल्लक जोड़ा आदि का ) आगमन जानकर वे प्राणिरक्षारूप चारित्र- पालन में तत्पर बुद्धिवाले अर्थात्'इन मारिदत्त राजा आदि के आने के कारण प्राणिधन होने इस प्रकार की बुद्धि-युक्त होते हुए स्वयं वहाँ प्राप्त हुए || १ | जैसे पूर्णमासी के चन्द्रमा के उदय से समुद्रतट ज्वारभाटा के आने से क्षुब्ध ( चंचल ) हो जाता है वैसे ही उस चण्डमारी देवी के मन्दिर में सुदत आचार्य के माननीय आगमन से मारिदत्त राजा की सभा क्षुश्च ( सन्तुष्ट ) हो गई ] ||२|| जब वह मारिदत्त राजा उक्त आचार्य की यथाविधि पूजा करके स्थित हो गया तब 'अभयरुचि' नामके क्षुल्लक ने उक्त आचार्य से निम्नप्रकार कहा ॥ ३ ॥
भगवन् ! शत्रुओं के कोतिरूपी स्तम्भ को विदीर्ण करने के लिए घृण के कीड़े सरीखे या टि० के अभिप्राय से यज्ञ - सरीखे यादवों का ऐसा वंश ( यदुवंश ) है, जो कि ऐसे चन्द्र से मुद्रित ( उपलक्षित) है, जो यदुवंश पूर्व में सोम (चन्द्र) वंश था | अथवा मानों - जो यदुवंश विशेष उच्च होने से चन्द्रपर्यन्त उपलक्षित (व्यास) है | मानों वह वंश चन्द्र में लगा हुआ-सा दृष्टिगोचर हो रहा है।' जो (चन्द्र) ऐसा शोभायमान होता है -- मानों -- जिसकी मुण्डमाला में सर्प क्रीड़ा कर रहा है, ऐसे ईशानरुद्र को जटाजूटरूपी चन्दनवृक्ष की क्यारी के समान आचरण करने वाले गङ्गाजल में क्रीड़ा करने वाला राजहंस हो है । "
जिसने देव सुन्दरियों के नेत्ररूपी चकोर पक्षियों के समूह को सन्तुष्ट करने के लिए अमृत की प्रचुर वृष्टि-रचना समर्पित की है। जो मानों – सरस्वती नदी के क्षरणरूप तीर्थ में प्रतिविम्बित होने से उसकी उपासना करने वाला तपस्वी ही है। मानों- जिसने कामदेव को दिग्विजय प्राप्ति के निमित्त अपना जन्म प्राप्त किया है। जो रात्रिरूपी लता के फूलों के गुच्छी- सरीखा मनोज्ञ है ।" जिसकी आकृति गङ्गानदी के श्वेत कमलों के वन को जीतने वाली है । जो कौस्तुभमणि, ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, अमृत व लक्ष्मी का सहोदर १. गुनिकुमारयुगल गुरदेवना पुरेश्वर- पौरजनागमनं । २. तेषां मारिदत्तादीनामागमने प्राणिवघी मागे दिति बुद्धिः । ३. मुण्डमालामध्ये क्रीडत्सर्पः ईदृश ईशानरुद्रः । ★ 'कंदलान्तराल' इति ष० । टिप्पणी शिरःशकलानि पलानि वां ४. जटाजूट एवं चन्दनवृक्षस्तस्य आलवालायमानं यन्मन्दाकिनीजलं तत्र या क्रीड़ा वत्र राजहंसेन चन्द्रेण मुद्रित उपलक्षितः यदुदाः ।
५. संतर्पणार्थम् ६ तथाः सुमणं क्षरणमेव तीर्थं तत्र प्रतिविम्बितत्वाच्चन्द्र एव तापसस्तेन ।
७. विग्विजय निमित्तं सज्जितं जन्म येन स तेन । ८. गङ्गानदीश्वताब्जवन । ९. कौस्तुभादीनां भ्राता लक्ष्मीः । 1. उपमालंकारः । 2. रूपकोपमाम्यां परिपुष्ट उत्प्रेक्षालंकारः ।
3. रूपकः काव्यलिङ्गाकारः 1 4. काव्यलिङ्गोत्थापित उत्प्रेक्षालंकारः 5 हेतुत्थालंकारः । रूपक मूलक उपमाकार 7 उपमालंकारः ।