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तिलक चम्कायै
मध्यो बलित्रयलिस्तमुजावलीय मुसम्मितेव विकटा वनिता सुगर्भे ।। १२९ ।।
जातस्वागताय तस्मै महीशाय निजोहान्येवमावश्शंस- 'देव, विधीयतां विष्वष्टेन सर्वेषामपि सत्वानामभयप्रदानम् । देव निवार्यतां कल्यपालापणेषु मैरेयव्यवहारः । देव प्रतिषिध्यतां महानसेषु व्यागमः । देव प्रस्तूयतामेवमपरा अपि तास्ताः क्रिया यत्र नोपयोगी मकारादित्रयस्य देव श्रवणकुलानि महान्ति मे जोवनयागमेषु । देष, परमवलोकनाभिलाषः संयतोपास्तिषु । देव परं मनोरथाः संयमपरायणीनां तापसीनां चरणाराषमेषु ।' राजा 'नूनमेवंविधप्रसादादेवीदोहदादस्माद्रवतीर्णस्य कस्यचित्सुकृतिनो भविष्यति महतो सुरवाती पासना । भवतु मामैवम् । तथाप्येतदभिलाव: पूरयितव्य एव । अन्यथा
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गर्भिणीनां मनः सेवारस्यादपत्ये ष्व कल्पतः । लतानां फलसंपत्तिः कुतो भूलव्यथानमे ।। १३२ ।'
इति चितक्यं आहूय व प्रथाप्रसिद्धिप्रवृत्ताख्यान्न रान्गुख्यान्तमेवान्वतिष्ठिपत् । सापि देवी व्यतिक्रम्य किल चिक्कसाकीर्णो रुपयोधरव्यवस्थामवस्यामवाप्य चावोसमयमभावाममृतमयन वेलेव लक्ष्मीचन्द्रमसो पुनरादयोः कृते महादेवी के ऐसे गर्भ में हुआ, जो कि अपवित्र है, जिसमें लार का ही भोजन है और जो कीड़ों के समूह से व्याप्त है तथा जो ऐसा मालूम पड़ता था मानों-दुसरा नरक स्थान ही है ।
• हम दोनों को गर्भ में धारण करनेवाली उस कुसुमावली महादेवी ने, जो कि यशोमति राजा के प्रेमरूपी वृक्ष की कोमल शाखा है, उम्र राजा के लिए, जिसके प्रति विनय प्रकट की गई है, एकान्त में निम्न प्रकार अपने are ( दोहले ) कहे । बह पशोमति महाराज की प्रिया कुसुमावली महादेवी गर्भवती के अवसर पर ऐसी सुशोभित हो रही थी, जिसके दोनों नेत्र विलास' ( हावभाव व लीला ) से मन्द हैं। उसके दोनों गाल पके हुए सरकंडा सरीखे पाण्डु हुए। जिसके कुचों ( स्तनों ) के अग्रभाग हरितमणि की कान्ति-सरोखे (नीले ) थे । उसका उदर भग्नरेखा बाला हुआ एवं जिसको रोमराजि विकट ( मनोज्ञ ) थी एवं रोकथाम करती हुई-सोमालूम पड़ती थी ॥ १२९ ॥
[ कुसुमावली महादेवी के दोहृद - ] 'हे राजन् ! सर्वत्र घोषणा द्वारा समस्त प्राणियों के लिए अभयदान कीजिए | हे स्वामिन् ! कल्यपालों मद्य बेंचने वालों ) की दुकानों पर मद्य बेंचने का व्यवहार रोकिए । हे देव ! पाकशालाओं में मांस का आगमन रोकिए । हे राजन् ! दूसरी भी उन-उन क्रियाओं का आरम्भ कीजिये, जिनमें मद्य, मांस व मधु का उपयोग न हो। हे स्वामिन ! मुझे जीव दया का निरूपण करने वाले शास्त्रों के श्रवण सम्बन्धी विशेष कौतुहल हो रहे हैं। देव ! मुनिजनों की पूजाओं के दर्शन की मेरी उत्कट इच्छा है। राजन् ! चरित्र पालन में तत्पर रहने वाला तपस्विनियों (आर्यिकाओं) के चरण कमलों को सेवाओं के मेरे उत्कट मनोरथ है।' [ उक्त दोहों को सुनकर ] यशोमति महाराज ने निम्न प्रकार विचार किया-'ऐसी प्रसन्नता बाले रानी के दोहले से, इस गर्भ में अवतीगं हुए किसी पुष्पवान् पुरुष की जैनधर्म सम्बन्धी महान वासना ( भावना - संस्कार ) मालूम पड़ती है । अस्तु ऐसा हो, तथापि इसकी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करनी चाहिए । अन्यथा - यदि गर्भवती प्रिया का दोहला पूर्ण नहीं किया जावे गर्भवती स्त्रियों के मानसिक खेद से उनके वच्चे रुग्ण होते हैं। क्योंकि जब लताओं की जड़ों में रोग प्राप्त होता है तब उनमें फल सम्पत्ति कैसे प्राप्त हो सकसी है ? || १३० || फिर यशोमति महाराज ने उन प्रमुख अधिकारी मनुष्यों को, जिनका नाम यथायोग्य प्रवृत्ति करने में प्रसिद्ध है (जो उक्त दोहों की पूर्ति करने में समर्थ हैं), बुलाकर उन्हें वैसा ही स्थापित किया ( उनसे उक्त कार्य सम्पन्न करने की प्रेरणा की ) । इसके बाद उस कुसुमावली रानी ने भी निस्सन्देह ऐसी
१. बिळासो हामलीलमोरिति विश्वः ।
२. विक्ट कराले पृथुरम्ययो: 'ह० लि० खटि० प्रति (ख) से संकलित - सम्पादक ३. कल्यपालाः मद्यसंधायिन ।