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पन्धम आश्वासः
१७३ पाप चन्द्रमतीस्तव पितामही यश्च यशोधरमहाराजरत पिता तो पि प्रिजातिमिरापावितसकलसरवोपहारफलत्य पिष्टताम्रचूलत्याला धनबल्भनाभ्याममतमतिप्रयुक्तसौलिक केयवशात्प्रेरय निरवधीनि पुलानि पहुषु भवासरेवनुभूय सांप्रतं तवय यमलसया पत्यभावमाजामतुः ।' राजा (स्वगतम्)-पिण्टकुमकुटापायोपयोगाभ्यामपि पिता पितामही घंतावतीमवस्थामवापत् । नाकलेयमधुना समाजन्म स्वयं निहतबलस्पलाकाशवरमाणिपिशितरसपुष्टवपु:सरस: पुरवंशस इव सदैव हिसाथ्यवसायसरूचेतसः के भविष्यन्ति लोकाः । तत्पर्याप्त मम सांसारिकसुखाभिलाषेण । (प्रकाशम्) भगवन, अयं जन्तुरमोघमघसंघातघनतया पातालतलमुपनिपतन्नुखियाता वीक्षाप्रधानहस्तावालम्बनेन' इत्यभिशय पपात भगवत्पादयोपरि । कृतपावपतनः पराममर्श चैवम् ।
महकपि पापं विवलति पुण्याप्तिमनोरपः मुतुच्छोऽपि । कि नारूपो रविरेष त्रिभुवनमात्र तमो हन्ति ॥१४५॥ अध ऊर्ध्व वा प्राणी स्थर्य कृतंरेष फर्मभिर्याति । कूपस्य यथा खनिता यथा च कर्ता निकेतस्य ।।१४६।। ऊषिोयसिहेतुर्लघगुरुकर्मप्रयोगतः स्वस्य । स्वयमेव भवति जन्तुस्तुलाम्तवत् कि विषादेन ॥१४७॥'
भहारक:-अहो धर्मधोरेम, प्रधानगुणगन्धननिधान, उत्तिष्ठ । श्रूयतां तावदिवमभयलोकव्यवहारसर्वस्वम् ।
प्रयोग से उस शोनां महाराज की उनकी मालाबन्द्रगति के साथ मारकर, अर्थात्-दोनों को मारकर, शरीर के अखीर होने पर गांचवें नरक में प्राप्त हुई ॥ १४४ ॥ तुम्हारी पितामही ( पिता की माता ) चन्द्रमति और तुम्हारे पिता यशोधर महाराज ये दोनों भी ब्राह्मणों द्वारा सुनाये गये समस्त जीवों को बलि के फलवाले ऐसे आटे के मुर्गे के मारण ( वलि ) व भक्षण से अमृतमति द्वारा प्रयोग किये हुए विष के कारण मरकर बहुत से दूसरे जन्मों में निस्सीम ( वेमर्याद ) दुःखों को भोग कर इस समय तुम्हारे ही जोड़े रूप से सन्तानभाव (पुत्र-पुत्री) को प्राप्त हुए हैं।' [ उक्त बात को सुनकर ] -यशोमति महाराज ने अपने मन में निम्नप्रकार विचार किया-'जब मेरे पिता ( यशोधर महाराज )ब मेरो दादी ( पिता की माता ) चन्द्रमति ने आटे के मुर्गे के मारण व भक्षण से भी ऐमी भयानक अवस्था प्राप्त की तब इस समय जन्मपर्यन्त स्वयं मारे हुए जलचर (मछली-आदि), थलचर ( मृगादि) व नभचर ( कबूतर-आदि ) जीवों के मांसरस से पुष्ट हुए शरीररूपी सडागवाले व बिलाब-सरी सदा हिंसा के अध्यवसाय (दृढ़ विचार ) में आसक्त चित्तवाले मेरे परलोक ( भविष्यजन्म ) क्या होंगे? अर्थात्-मेरे भविष्यजन्म महाभय दूर होंगे। अतः मेरी सांसारिक सुखों की अभिलाषा निरर्थक है।'
तदनन्तर प्रस्तुत यशोमति महाराज ने सुदत्ताचार्य से स्पष्ट कहा-'भगवन् | इस मुझ सरीने प्राणी का, जो कि सफल पाप-समूह की प्रचुरता से पातालतल में गिर रहा है, दोक्षा-प्रदान रूपी हस्तावलम्बन ( सहारा ) से उद्धार कोजिये । ऐसा कहकर भगवान् सुदत्ताचार्य के चरणों पर गिर पड़ा। आचार्यश्री के चरण
वाले यशोमति महाराज ने निम्नप्रकार विचार किया-थोडी सी भी पूण्य-प्राप्ति को अभि
पाप को भी नष्ट कर देती है। उदाहरणार्थ-या छोटा सा यह सूर्य तीन लोक में भरे हए [विशाल-विस्तृत ] अन्धकार को नष्ट नहीं करता? || १४५ ॥ यह जीव स्वयं किये हुए पुण्य-पाप कर्मों से क्रमशः वेसा ऊपर ( स्वर्ग-आदि ) व नीचे ( नरक ) जाता है, जैसे गृह की रचना करनेवाला मानव ऊपर जाता है और कुएं का खोदनेवाला पुरुष नीचे जाता है॥१४६ ।। यह प्राणी लघु ( पुण्य व पक्षान्तर में कम बजनबाली वस्तु ) व मुरु ( पाप व पक्षान्तर में वजनदार वस्तू ) कर्म के प्रयोग से स्वयं ही अपने को ऊर्ध्वगति ( स्वर्ग-आदि ब पक्षान्तर में कार उठना ) व अधोगति ( नरकति व पक्षान्तर में नीचे जाना ) का कारण वैसा होता है जैसे तराजूदण्ड लघु गुरुकर्म (हल्की व बजनदार वस्तु ) के प्रयोग से ऊर्ध्व व अधोगति (ऊपर व नीचे उठने) में हेतु होता है, अत' शोक करने से क्या लाभ है? ॥ १४७ ।'