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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये तत्यानं व जलाविज्ञानमिवाविहितामुष्ठान न भवति संसारतृष्णोपशान्तिकारणम् । प्रसंगातसयंत्रिपारम्भः समधिगतेतिकर्तव्योऽपि कृषीवल इव न संपुज्यते फलः । अनायास्य कार्य सेवक इवात्मवानपि न लभते परी परतीम् । ततश्य
मत्वं गुरोः समधिगम्य पार्यरूपं तबाघभावनमनोरपनि तारमा।
माय माना पोभिजन्तुः परं पदमुपंति यथा क्षितीशः ।।१२७।।' सविविद्याधर विमोदकर्मा चपडकर्मा-भगवन, विरदुरागमवासनामनसा को नु खलपायः सुमेधसामम्पुश्यनिःश्रेयसाधिगमाय ।' 'धर्मः ।' 'को मामायं धर्मः ।' 'अहिंसापूर्वकाग्र हस्तत्त्वपरिग्रह एव ।' 'ननु हिंसास्माकं कुलधर्मः । सा कथं त्यजनीया ।' 'अहो महापुरुष, एवमेवेतस्कुक्कुटमियन पुरा सम्मनि हिसा लषममनमग्यमाने महतों दःखपरम्परामनुबभूव ।' वण्डकर्मा ( सविस्मयः )-'भगवन, कि पुनः पुरा जन्मनीवं किंचिद् दुष्कृतमकार्षीत् । कर्ष का सवन्यभूत् ।' 'भगवान्, तमाकर्णय । अस्यामेवोज्जयिन्यामस्व यशोमतिमहाराजस्य वंशे ।
आसोच्छन्द्रमतियंशोधरनुपस्तस्यास्तननोऽभवसौ घar: तिपिष्टफुक्कुटपली बंडप्रयोगाम्मृतो ।
श्या केको पवनाशनश्च पृषतो प्राहस्तिमिछागिका भात्यास्तनयश्च गबरपतिजतिी पुनः कुनकुटौ ॥१२८|| इसीतरह प्रशस्त कर्तव्य का ज्ञाता मानब, जिसने प्रशस्त प्रयोजन के लिए कर्तव्य का आरम्भ ही नहीं किया, अर्थात्-जो आलसी (श्रद्धा-हीन ) है, तो वह भी वैसा सुखरूप फलों से संयुक्त नहीं होता जैसे आलसी किसान खेती करने के तरीकों का शान रखता हुआ भो धान्यरूपी फलों से संयुक्त नहीं होता। इसी तरह तपश्चर्या के विना आत्मा का वश करनेवाला ( जितेन्द्रिय ) मानव भी वैसो उत्तम पदवो ( मुक्तिस्यान ) को प्राप्त नहीं होता, जेसे सेवक जितेन्द्रिय होनेपर भी शारीरिक कष्ट उठाए विना उत्तम पदबो ( स्थान ) प्राप्त नहीं करता। अतः यह प्राणी ( मुनि) गुरु से सत्याचं मोक्षोपयोगो तत्वों का निश्चय करके आत्मस्वरूप की भावना के मनोरथ से व्याप्त हुई बात्मा से युक्त हुमा ( सम्बग्दृष्टि हुआ) निर्दोष तपश्चर्याओं के द्वारा शरीर को कष्ट देकर वैसा उत्तम पद ( मोक्ष स्थान ) प्राप्त करता है जैसे राजा उक्त प्रकार कर्तव्य पालन करता हुआ उत्तम पद ( राज्यश्री का सुख ) प्राप्त करता है। अर्थात्-जैसे राजा पिता के वचन सुनता है और उनपर श्रद्धा करता है एवं पश्चात् प्रजापालन रूप कर्तव्य-पालन में उद्यम करता है तब उत्तम पद (राज्य) प्राप्त करता है वैसे ही मुनि भी गुरु से तत्वज्ञान प्राप्त करके सम्यग्दृष्टि हुषा निर्दोष तपश्चर्या करता है, जिससे मुक्तिश्री को प्राप्त करता है ।। १२७ ।।
। अथानन्तर प्रस्तुत श्री सुदत्ताचार्य के अमृततुल्य व युक्ति-पूर्ण बचन सुनकर ] चण्डकर्मा नामके कोपाल ने, जिसके समीप विद्याधरों का क्रीडाकर्म या आमोद-प्रमोद है, कहा-'भगवन ! मिथ्याशास्त्रों को वासना ( संस्कार ) से रहित चित्तवृत्तिवाले ज्ञानो पुरुषों के लिए निश्चय से स्वर्ग व मोक्ष की प्राप्ति का क्या उपाय है ?"
आचार्यश्री-धर्म हो उपाय है। चण्डकर्मा-'इस धर्म का क्या स्वरूप है?
आचार्यधी-'अहिंसा (प्राणिरक्षा) के साथ प्रगाढ़ अनुराग वाले तत्वनिश्चय को धर्म कहते हैं।' चण्डकर्मा-निस्सन्देह प्राणियों को हिंसा करना हमारा कुल-धर्म है, उसे कैसे छोड़नो पाहिए? आचार्यश्री'अहो महापुरुप ! इस मुर्गा-मुर्गी के जोड़े ने, इस प्रकार ही पूर्व जन्म में हिंसा को कुलधर्म मानने से विशेष दःस्व श्रेणो भोगी।' चण्डकर्मा ने आश्चर्यान्वित होते हुए पूछा-'भगवन् । इस मुर्गा-मुर्गी के जोड़े ने पूर्वजन्म में कौन-सा पाप किया? और किस प्रकार से उसका फल ( दुःख-समूह ) भोगा?' प्रस्तुत आचार्य-'सुनिए। इसी उज्जयिनी नगरी में इसी यशोमति महाराज के वंश में [ यशोधराजा की ] चन्द्रमति नामकी रानी थी, उसका पुत्र यशोधर नाम का राजा था। उन दोनों ने चण्डमारी देवो के लिए आटे के मुर्गे को बलि चढ़ाई। फिर दोनों विषप्रयोग से कालकलित हुए | अर्थात्-यशोधर की रानी अमृतमति द्वारा किये गये विप-प्रयोग