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पञ्चमं आश्वांसः
नहि सशरीरस्य प्रिया प्रिमयोरपहति रहित । मशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्तः ॥ १२ ॥
इति । ततश्च ।
मलकलुषतापात र विशुद्धपति यत्त्रतो भवति कनकं तत्पाषाणो यथा च कृतक्रियः । कुशलमतिभिः कंश्विद्वत्यैस्तचाप्सनयाश्रितं रथमपि गलत्श्लेशाभरेगः क्रियेत परः पुमान् ॥ ९३ ॥ रागाद्युपहतः शंभुरशरीरः सदाशिवः । अप्रामाण्यरयत्पत्तेः कथं तत्रागमोत्सवः ॥ ९,४।१ सयुक्तम् -- का नंब सदाशिवो विकरणस्तस्मात्परो रागवान् विध्यावपर तृतोयमिति चेत्तत्करूप हेतोरभूत् । शक्रया चेत्परकीयया कथमसौ तद्वरन संबन्धतः संबन्धोऽपि न जायटीति भवतां शास्त्रं निरालम्बनम् ।। ५५ ।। एवं च सतीदं न संगच्छते
अवृष्टविग्रहाच्छान्ताखिवारपरमकारणात् । नाव रूपं समुत्पन्नं शास्त्रं परमभम् ॥९६॥ fare स्याप्ततायां श्लेशकर्मविपाककषायंरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वर' इति पेश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विरागस्तृप्ति निसर्ग जनिता आत्यन्तिकं सुखमनावरणा च शक्तिर्ज्ञानं च सर्वविषयं
श्रशितेन्द्रियेषु ।
भगवंस्तवैव ॥ ९७ ॥
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का निरूपण करते हैं— जैसे मल (कीट) से कलुषित (मलिन) माणिक्य आदि रत्न यत्नों (माणोल्लेखन- आदि उपाय ) से बिशुद्ध हो जाता है और जैसे सुवर्ण-मापाण, जिसकी क्रियाएँ (अग्निलागन व छेदन आदि ) की गईं हैं, सुवर्ण हो जाता है, वैसे ही कुशल-बुद्धि-शाली व आप्त ( वीतराग सर्वज्ञ ) तथा उसके स्याद्वाद का आश्रय प्राप्त किये हुए किन्हीं धन्यपुरुषों द्वारा आत्म-वृद्धि के उपायों ( सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारिश्र आदि ) से यह मिथ्यास्वादि से मलिन आत्मा भी क्लेशों के विस्तार को नष्ट करनेवाला ऐसा उत्कृष्ट - शुद्ध किया जाता है ।। ९३ ।। अब हरप्रबोध तपस्वी द्वारा निरूपण की हुई वैदिक मान्यता (वाममार्ग) का निरास करते हैं--शंभु (पार्वती - कान्त ) राग व द्वेषादि विकारों में पीडित होने से अप्रमाण है और सदाशिव से आगम ( वेद ) की उत्पत्ति कदापि हो नहीं सकतो; क्योंकि वह शरीररहित है, अतः उसके द्वारा आगम की उत्पत्ति रूप माङ्गलिक कार्य कैसे हो सकता है ? भावार्थ-शंभु जब रागादि दोष से दूषित है तब वह वैसा प्रमाण नहीं है जैसे रथ्यापुरुष ( मार्ग में जानेवाला मानव ) प्रमाण नहीं है, अतः अप्रमाणभूत उसका कहा हुआ आगम (वेद ) प्रमाण कोटि में नहीं आ सकता एवं सदाशिव अशरीरी होने से उसके द्वारा वेद की उत्पत्ति वैसी नहीं हो सकती जैसे शरीर रहित आकाश से वेदोत्पत्ति नहीं हो सकती ।। ९४ ।। कहा भी है
सदाशिव वेदों का बक्ता नहीं हो सकता, क्योंकि वह शरीर या इन्द्रियों से रहित है । एवं उससे दूसरा पार्वती - कान्त ( श्री शिव ) बक्ता नहीं हो सकता, क्योंकि वह सरागी है। यदि आप कहोगे कि उन दोनों से भिन्न तीसरा कोई बक्ता है, उस विषय में प्रश्न यह है कि ( उसका उत्पादक कारण कौन हैं ? ) यदि आप कहोगे कि कोई ऐसी शक्ति है, जिससे वह उत्पन्न हुआ है, तब बताइए कि जब वह शक्ति उससे भिन्न है तो भिन्न शक्ति से वह शक्तिमान् कैसे हो सकता है ? क्योंकि दूसरी शक्ति के साथ उसका संगम नहीं है। यदि आप कहेंगे कि उस भिन्न शक्ति का उसके साथ समवाय संबंध है, तब युक्तियुक्त विचार करने पर वह संबंध भी विशेष रूप से घटित नहीं होता अतः आपका नादरूप शास्त्र (वेद) वक्ता रूप आलम्बन से शुन्य हो गया ||१५|| ऐसा होने पर निम्न प्रकार का वचन युक्तिसंगत घटित नहीं होता 'शरीर-रहित, शान्त व उत्कृष्ट कारण रूप शिव से नादरूप विशेष दुर्लभ शास्त्र (वेद) उत्पन्न हुआ ||२६|| ' यदि आप रागादि से पीडित रुद्र ( श्रीशिव) को ईश्वर मानोगे तो 'क्लेशकर्मविपाकाशयेरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः' अर्थात् - ऐसा पुरुष विशेष, जो कि समस्त दुःखों
१. मदकलुषतां जातं ।