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पञ्चम आश्वास:
१५७ पर्यापर्यातीतं सत्, पावपात्पतितं पत्रमिव न पुनः प्ररोहति । तथा च परलोकाभावे जलबुदबुदस्वभावेषु जोर्वेषु मदप्रतिज्ञानेकिमयं ननु लोकस्यात्मसपत्नः प्रयत्नः । तदपहायामीषां जोवन्मृत मनीषाणां मनीषितमेतत् कुशलारा
यम् ।
भगवान् —
कि छ ।
इस्यमुष्याय
यावज्जीवेत् सुखं जीवेनास्ति मृत्योरगोचरः । भस्मीभूतस्य शान्तस्य पुनरागमनं कुतः ।। ७९ ।। रिस्य अन्ततस्य गुणदोषावपश्यतः । विलब्धा बत केनामी सिद्धान्तविषमग्रहाः ॥८०॥ समाधिकरी वादस्तस्याख्यानं बिरुद्धबोधानाम् । भवति हि कोपाय परं शिक्षा व्यालेण्विक गजेषु ॥ ८१ ॥ अपि च व्याक्रोशी ध्यापहासी वा विपर्यस्तैः सहोविते । स्वस्य मयंपेक्षायामही कष्टर विशिष्टता ॥ ८२ ॥ यघातस्योपदेशनं ॥८३॥ स्तौ नित्य सोको विविधविधायक
दशनोटिशः कुखपुण्याकुरिता इव । सूरिः सभूतवामेवं बभाषे स्वरितस्वरः ॥ ८४ ॥ बन्धमोक्ष सुखं दुःखं प्रवर्तननिवर्तने । यो प्रकृतेर्धर्मः कि स्यात्पुंसः प्रकल्पनम् ।। ८५ ।।
होगई तब लोक का यह आत्मा के साथ शत्रुता करने वाला तपश्चर्या रूप प्रयत्न किस प्रयोजन से है ? अर्थात्निरर्थक है । अतः जोते हुए भी मुरदे सरीखी बुद्धि रखने वाले इन मुनियों के सिद्धान्त ( पुनर्जन्म आदि की मान्यता ) को छोड़कर कुशल अभिप्राय बालों को निम्नप्रकार की नास्तिक दर्शन की मान्यता स्वीकार करनी चाहिए। जब तक जिओ तब तक सुखपूर्वक जीवन यापन करो, क्योंकि [ संसार में ] कोई भी मृत्यु का अविषय नहीं हैं, अर्थात् - सभी कालकवलित होते हैं । भस्म रूप हुई शान्त देह का पुनरागमन कैसे हो सकता है ? ( इति पूर्वपक्षः समाप्तः ) । अर्पित नहीं हो सकता ॥ ७९ ॥
तदनन्तर इन्द्रादि द्वारा पूज्य श्री सुदत्ताचार्य ने अपने मन में निम्नप्रकार विचार किया- 'खेद है कि जन्म-काल में मिथ्याज्ञान से रहित और गुण व दोष न देखते हुए इस जीत्र में ये सिद्धान्तरूपी भोषण ग्रह किसने अर्पण कर दिये ? ||८०|| विशेष यह है कि मिथ्यादृष्टियों के साथ वादविवाद करना, उनका समाधान करनेवाला नहीं होता एवं उनके लिए दी हुई यथार्थ शिक्षा निस्सन्देह वैसी उनके केवल क्रोध-निमित्त होती है जैसे दुष्ट हाथियों के लिए दी हुई शिक्षा केवल उनके क्रोध निमित्त होती है ॥ ८१ ॥ विशेष यह है कि जब मिथ्यादृष्टि वादियों के साथ कुछ कहा जाता है तो वे वक्ता को गाली देनेवाला और उपहास करनेवाला - निन्दा करनेवाला कहते है और जब बक्ता उनके प्रति माध्यस्थ्यभाव धारण करता है ( कुछ भी नहीं कहता ) तो उन्हें वक्ता की मूर्खता प्रतीत होती है । अहो आश्चर्य है कि इसप्रकार विद्वत्ता भी कष्टप्रद है | १८२|| यह लोक अनेक प्रकार की इच्छाओं का स्वामी है, अतः यह बक्ता की स्तुति करे या निन्दा करे, तथापि सज्जनों को यथार्थं तत्व का उपदेश देनेवाले होना चाहिए ॥ ८३ ॥
फिर सत्यवक्ता श्री दत्ताचार्य ने मध्यम ध्वनि वाले होते हुए व दन्तकिरणों से दिशाओं को पुष्यरूपी अङ्कुरों से व्याप्त करते हुए-से होकर निम्न प्रकार कहा' ॥ ८४ ॥ [ 'शकुन सर्वज्ञ' नाम के विष्णुभक्त विद्वान द्वारा कहे हुए सांख्यमत का खंडन ] यदि वन्धु मोक्ष, मुख, दुःख, प्रवृत्ति, व निवृत्ति यह प्रकृति का धर्म है सो आत्मतत्व की मान्यता का क्या प्रयोजन होगा ? अर्थात् - जब आपने पुरुषतत्व (आत्मा) को माना है तो जाना है कि प्रकृति अचेतन ( जड़ ) है और आत्मा चेतन है, अतः बंध व मोक्ष आदि आत्मा के ही धर्म मानते चाहिए न कि जड़ प्रकृति के ॥ ८५ ॥ 'जब आप 'प्रकृतिः कर्थी पुरुषस्तु पुष्करपलाशवनिर्लेपः किन्तु चेतनः '
१. उपमालंकारः ।