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पञ्चम आश्वासः
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वृष्टात्ययात्तत्वमदृष्टमेष प्रसाधयेच्चेद्वन्दनासरालः । तवा खरोष्णोः अतितो विषाणे 'विनिमंपच अयी कुतालः ॥११॥ कि नातं न परोन कमिरिह प्रायेण बन्धः क्वचिद्धोक्ता प्रेत्य न लस्फलस्य च क्वेरिम सोबो यरि। कस्मादेव तपःसमुद्यतमनाश्चस्याविक छन्वते कि वा तत्र तपोस्ति केवलमयं पुर्तजयो वञ्चितः ।।११२॥
तदनम्तनेहातो रोष्टे भषस्मृतेः । भूनानन्वयनाजीबः प्रकृतिज्ञः सनातनः ।।११३१॥ पयिष्यादिववाश्माषमनाद्यनिधनात्मकः । मध्ये सत्त्वाकुतस्तत्वमन्यथा तब सिद्धपति ।।११४॥ कापाकारेषु भूतेषु चित्तं थ्यक्तिमवाप्नुवत् । समापुरमा यो आया ११५॥
यदि यह बकवादी बौद्ध प्रत्यक्ष प्रमाण के लोप बाले । प्रत्यक्ष से विरुद्ध ) आत्मविनाश से अदुष्टतस्व ( प्रत्यक्ष प्रतीत न होनेवाला तत्व-सन्तानादि ) सिद्ध करेगा तब तो केवल बचनमात्र से गये में सींगों का विधान करनेवाला बीर बेल में सींगों का निषेध करने वाला कुंभार क्या जयशील हो सकता है? अपितु नहीं हो सकता ।' भावार्थ-जंस कुंभार किसी के समक्ष कहता है कि मेरे गधे में दो सौंग है और उस बैल में दो सौंग नहीं हैं, तो जयशील नहीं होता वैसे ही प्रस्तुत बौद्ध भी, जो कि प्रत्यक्ष-विरुद्ध आत्मा का विनाश मानता है व प्रत्यक्ष से प्रतीत न होनेवाले सन्तान-शादि तत्व का समर्थन करता है, जयशील नहीं हो सकाता ॥ १११ । 'में नहीं हूँ, न कोई दूसरा । शिष्य-आदि । है, इस लोक में कहीं पर प्रायः करके आत्मा के साथ पुण्य-पाप को का बन्ध नहीं होता एवं यह जीव मरकर दूसरे जन्म में पृण्य-पाय कर्मों के मुख-दाख रूप फल का भोक्ता भी नहीं है। ऐसा यदि बोद्ध कहता है तो हम पूंछते हैं, कि यह ( बौद्ध किस कारण से तपश्चर्या में उद्यत मनवाला होकर चैत्य ( मूर्ति ) आदि की नमस्कार करता है ? अथवा वहाँ पर क्या तपश्चर्या है ? केवल यह मूर्ख धूतों से ठगाया गया मालूम पड़ता है ।। ११२ ।। अब चण्डकर्मा कोट्टपाल द्वारा निरूपण किये हुए चार्वाकदर्शन (नास्तिकमत ) का निराकरण करते हैं
प्रकृति (शरीर व इन्द्रिय-आदि ) को जाननेवाला यह जीव ( आत्मद्रव्य ) सनातन ( शाश्वत-सदा से चला आया) है, क्योंकि पूर्वजन्म संबंधी दुग्धपान के संस्कार से उसी दिन उत्पन्न हुए बच्चे की दुग्धपान में चेष्टा देखी जाती है. इस यक्ति से आत्मा का पर्व जन्म सिद्ध होता है। इसी प्रकार कोई मरकर राक्षस होता हुआ देखा जाता है, इससे आत्मा का भविष्य जन्म भी है और किसी को पूर्व जन्म का स्मरण होता है, इससे भी पूर्वजन्म सिद्ध होता है, क्योंकि इस जाब में पृथिवी, जल, अग्नि घ वायु इन चारों जरूप भूत पदार्थों का अन्वय नहीं है । भावार्थ-क्योंकि मौजूद होनेपर भी इसे उत्पन्न करनेवालो कारण सामनी नहीं है, अतः यह शरीर व इन्द्रियादि से मित्र चैतन्यका होता हुआ आकाश को तरह अनादि अनन्त है ॥११३|| जैसे पृथियो, जल, अग्नि व वायु ये चार भूत द्रव्य अनादि व अनन्त है वैसे हो आत्मा भी अनादि अनन्त है, क्योंकि सत्त्वे सति अनादिस्वात्, क्योंकि यह पृथिवी आदि की तरह मौजूद होकर के अनादि है। यदि आप कहोगे कि (मध्ये सत्त्वात) यह आत्मा मौजूद होने पर भी पृथिवी-आदि के मध्य पश्चात् उत्पन्न हुआ है, तो बतलाइए कि जो वस्तु पूर्व में अविद्यमान ( गैरमौजूद ) थी, वह पीछे कहाँ से आ गई? [ क्योंकि अमत् ( गैरमौजूद ) वस्तु पैदा नहीं होती, अन्यथा-गधे का सींग आदि असत् पदार्थ भी उत्पन्न होना चाहिए ] अन्यया, अर्थात् यदि सदा मौजद होनेपर भी आत्मा अनादि अनन्त नहीं है तो आपका भूतचतुष्टय ( पृथिवी, जल, अग्नि व वायु ये चार पदार्थ) अनादि अनन्त केसे सिद्ध होगा?॥११४|| यदि आप 'बुद्धि देहात्मक है व देह का कार्य है एवं देह का गुण हैं, ऐसी १. विघन-कुर्वन् बिए विधाने इत्यस्य झा ( क ) से संकलित । २. सरपच उक्षा च (यलीवः ) रोलाणी सा., कुम्भकारी यथा कस्यचिदने कथयति 'मम गर्दमस्य दिपावते,
ते तदुक्ष्ण; न स्तः स कि जयो भवति ? तमसो बौद्धः इति भावः । राटि० ( ख ) प्रति में संकलित