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पश्चम आश्वासः
नगरकर्तवावरच पूर्वमेव चिन्तितः । तथाहि
कर्ता न तावविह कोऽपि बियेच्छया वा दृष्टोऽन्यथा कटकूताबपि स प्रसङ्गः ।
कार्य किमत्र सबनाविषु तबकायराहत्य घेत् त्रिभुवन पुरुषः करोति ॥१०२॥ कर्मपर्यायत्वे वेश्वरस्य सिद्धसाध्यता । तदाह--
विधिविधाता नितिः स्वभावः कालो प्रहश्चेश्वरवकर्म ।
पुण्यानि भाग्यामि तथा कृतान्तः पर्यायनामानि पुराकृतस्य ||१०३।। कपमवेतन फर्म परोपभोगाय प्रवतंत इति चेत् तन्न ।
रनायकान्तवातादे'रचितोऽपि पर प्रति । यथा क्रियानिमित्तत्वं कर्मणोऽपि तथा भवेत् ॥१४॥ तयुक्त रत्नपरोक्षायामन केवलं सबष्टुभकृन्नपस्य मन्ये प्रजानामपि सद्विभूत्यै । यद्योजनानां परतः वातादि सर्वाननान्विमुखीकरोति ॥१०५।।
विष्टिकर्मफरादीनां चेतमान सचेतनात् । दृष्टा चेष्टा विधयेष जगत्लष्टरि सास्तु वः ॥१०॥
कि दूसरे के द्वारा अप्रेरित हुआ (अथवा पाठान्तर में प्रेरित हुआ) भी शिव स्वयं दुसरे को प्रेरणा करने वाला है यह बात भो विचारणीय है । ईश्वर को जगमष्टा को मान्यता विषय पर हम पूर्व में विचार कर चुके हैं।
विशेष यह कि इस संसार में कोई भी । ईश्वर । ज्ञानाफि ब इच्छा शक्ति द्वारा जगत का कर्ता नहीं देखा गया। तथापि पदि कोई कर्ता मानोगे तो उसे घटाई-आदि-कार्य का भी कर्ता मानना पड़ेगा । यदि ईश्वर परमाणों को एकत्रित करके हठ से तीन लोक की सष्टि रचना करता है तो लोक में गहादि कार्यों के निर्माण में बढ़ई वगैरह से क्या प्रयोजन रहेगा? क्योंकि ईश्वर ही सबको सृष्टि कर देगा ।। १०२ । यदि
आप जगत्स्रष्टा ईश्वर को कर्म का पर्यायवाची मानकर उसे ( कर्म को ) जगत् का सष्टा मानते हैं तो सिद्ध साध्यता है । अर्थात् हमारे द्वारा सिद्ध की हुई वस्तु को ही आप सिद्ध कर रहे हैं, अभिप्राय यह है कि इसमें हमें (स्याद्वादियों को ) कोई आपत्ति नहीं है। क्योंकि कर्म के निम्न प्रकार नामान्तर हैं
कर्म के निम्न प्रकार पर्यायवाची शब्द ( नाम ) है--विधि, विधाता, नियति, स्वभाव, काम, ग्रह, ईश्वर, देव, कर्म, पुण्य, भाग्य व कृतान्त ।। १०३ ।। शङ्खा-जब कम अचेतन ( जड़ । हैं तब वे दूसरों के उपभोग के लिए कैसे प्रवृत्त होते हैं ? यह शङ्का उचित नहीं है, क्योंकि इसका समावान निम्न प्रकार है-जैसे रत्न ( नर-मादा मोतो-आदि), चुम्बक पत्थर व वायु वगैरह (अपवा पाठान्तर में नौका वगैरह। पदार्थ, जो कि अचेतन ( जड़ ) होते हुए भी पर के प्रति क्रियानिमित्त हैं वैसे ही अचेतन कर्म भी परोपभोगार्थ क्रियानिमित्त ( प्रवृत्ति में हेतु ) हैं। भावार्थ-जैसे मोती के पास दूसरा मोती आजाता है और चुम्बक पत्थर लोहे को खींचता है एवं वायु पत्ता-आदि को उलाती है, यद्यपि ये जड़ हैं, वैसे ही वर्म भी अचेतन होकर दूसरों के उपभोग निमित्त प्रवृत्त होते हैं ॥ १०४ ॥ रत्नपरीक्षा ग्रंथ में कहा है-मेरी ऐसी मान्यता है कि वह पुण्य कम सजा का ही कल्याण कारक नहीं है अपितु प्रजाजनों को विभूति-निमित्त भी है, जो कि निश्चय से संकड़ों योजनों से भी आगे (हजारों व लाखों योजन ) दूरवर्ती प्राणी को समस्त आपत्तियों से छुड़ा देता है। १०५ ।। यदि आप ऐसा कहते हैं कि जेसे पालकी ले जानेवाले व नौकरी लेकर काम करने वाले ( मजदुर-आदि । सचे. सन ( ज्ञानवान ) होते हुए भी ( सचेतन स्वामी द्वारा प्रेरित होकर ) चेष्टा (प्रयत्ल-उद्योग) करते हैं वैसे ही सचेतन ईश्वर भी सचेतन संसारी प्राणियों द्वारा प्रेरित हुमा चेष्टा करता है. ऐसा मानने से तो यह आपत्ति
१. 'नाका' इति ह. लि. (क) प्रती पाठः।
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२. दृष्टान्तालंकारः ।