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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
विहाय रमणीरवरपर मोक्ष सौख्याथिनामहो जडिमडिण्डिम विफलभण्डपाखण्डिनाम् ॥७६॥ केतनस्य महतो सर्वार्थसंपरकरी ये मोहादवधीरयन्ति कुषियो मिष्याफलान्वेषिणः । ते तेन नित्य नियतरं सुण्डीकृता लुम्बिता: केचित्पञ्चशिखीकृताइत्र जटिन: कापालिका श्चापरे ॥७७||
स्त्रीमुद्रा
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खण्डकाव्यात् स्वस्त.-
पश्यन्ति मे जन्म सृतस्य जन्तो: पश्यन्ति ये धर्ममदृष्टसाध्यम् । पश्यन्ति मे ऽन्यं पुरुषं शरीरात् पश्यन्ति ते नौलकपीतकानि ॥ ७८
सतश्च प्राणापानसमानोदानव्यानव्यतिकीर्णेभ्यः कायाकारपरिणतिसंकीर्णेभ्यो वनपवनावभिपवनसत्वेभ्यः पिष्टोवकगुडघातकीप्रमुखेभ्य इव मशक्तिः पर्णचूर्णक्रमुकेभ्य इव राग संपत्तिस्तदात्मकार्य गुणस्त्रभाषतया चैतन्यमुपजायते । तच्च गर्भावरण
की अभिलाषा करने वाले निरर्थक चित्तमात्ररञ्जक पाखण्डियों की महो | यह ( कायक्लेशादि ) मूर्खता को घोषणा ( चिह्न) है || ७६ || जो मूढबुद्धि झूठे स्वर्गादि फल का अन्वेषण करनेवाले होकर अज्ञानवश कामदेव की सर्वश्रेष्ठ और समस्त प्रयोजन रूप संपत्ति सिद्ध करनेवाली स्त्री- मुद्रा का तिरस्कार करते हैं, वे मानोंउसी कामदेव द्वारा विशेष निर्दयता पूर्वक साहित कर मुण्डन किये गए अथवा केश उखाड़ने वाले कर दिये गए एवं मानो - पञ्चशिखा युक्त ( चोटीधारी ) किए गए एवं कोई तपस्वी कापालिक किये गए ॥ ७७ ॥ फिर चण्डकर्मा नाम के कोट्टपाल ने कहा – कि बुद्धधर्मानुयायी सुगत कीर्ति विद्वान् ने निस्सन्देह अच्छा कहा --- क्योंकि - जो भरे हुए प्राणी का जन्म ( पुनर्जन्म ) देखते हैं और जो ऐसे धर्म को देखते है, जिसका फल प्रत्यक्ष प्रतीत नहीं है एवं जो शरीर से पृथक् वात्मा को देखते हैं वे ( मूढ़ बुद्धि ) भ्रमवश नीलक ( नीलवर्णवाली वस्तु ) पीतक ( पीतवर्णवाली ) समझते हैं और पीतवर्णवाली वस्तु की नील वर्ण वाली समझते हैं । अर्थात् - जैसे, नील को पीत व पीत को नील समझना भ्रम है वैसे ही पुनर्जन्म, धर्म तथा शरीर से भिन्न द्रव्य की मान्यता भी भ्रम है ॥ ७८ ॥
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अतः जल, वायु, पृथिबी व अग्नि इन ऐसे चार पदार्थों से, जो कि शरीराकार परिणति ( दूसरी पर्याय- अवस्था ) से मिश्रित है और प्राण' ( हृदय में स्थित हुई वायु ), अपान ( गुदा में स्थित हुई बाबु ), समान (नाभि में वर्तमान वायु उदान ( कण्ठ देश में स्थित वायु ) और व्यान वायु ( समस्त शरीर में वर्तमान वायु ) द्वारा क्षिप्त ( फेंके गये) हैं, वेसा चैतन्य ( आत्मद्रव्य ) उत्पन्न होता है, जैसे चूर्ण किये हुए जलमिश्रित गुड व धातकी पुष्प ( घाय-फूल ) आदि पदार्थों से मद शक्ति ( मद्य ) उत्पन्न होती है । अथवा जैसे पान, चूना व सुपारी से रागसम्पत्ति ( लालिमा रूपी लक्ष्मी ) उत्पन्न होती है। क्योंकि यह चैतन्यशक्ति ( ज्ञानशक्ति ) देहात्मिका* ( शरीर रूप ) देहकार्या ( शरीर से उत्पन्न हुई कार्यरूप ) व देहगुण ( शरीर का गुण ) है | वह चैतन्य ( आत्मा ), गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त रचना-युक्त है, इसलिए नष्ट हुआ वह ( चैतन्य ) वैसा पुनः उत्पन्न नहीं होता जैसे वृक्ष से गिरा हुआ पत्र पुनः उत्पन्न नहीं होता । इसलिए परलोक ( पुनर्जन्म ) का अभाव सिद्ध होने पर और जब जल के बबूलों सरीखे क्षणिक जीवों में मदशक्ति सरीखी चैतन्य शक्ति सिद्ध
२. व्यत्प्रेक्षालंकारः ।
१. काम्यलिङ्गाकारः । ३. हृवि प्राणो पानः समानो नाभिसंस्थितः । सदानः कण्ठदेणे स्वानुपानः सर्वशरीरगई' ॥ १ ॥ इयमरः । ४. 'देहात्मिका कार्या देहस्य च गुणतो मतिः । यतवयमिहाश्रित्य नास्त्यभ्यासस्य संभवः ॥ १ ॥ इति
ह० लि० सटि (ग) प्रति से संकलित०---