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पञ्चम आश्वासः
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येनेवमीशमवृश्यत मोक्षवम बोर्यायुरस्तु भगवास पिनाकपाणिः ॥७१।।' सुगतकीति:--'आत्मग्रह एवं प्राणिनां तावन्महामोहावन्ध्यान्ध्यम् । __ यतः--यः पश्यत्यात्मानं तस्यात्मनि भवति शाश्वतः स्नेहः । स्नेहासुखेषु तृष्यति तृष्पा दोषांस्तिरस्कृष्ते ॥७२।।
आत्मनि सति परसंना स्वपरविभागास्परिप्रदेषो । अनयोः संप्रतिबमा सधै घोषाः प्रजायन्ते ।।७।। विगलिताग्रहे चास्मग्रहे निराशचित्तोत्पत्तिलक्षणो निरोवापरनामपक्षो मोक्षः स्वलक्षणेऽक्षिणामणः स्वलक्षणं । तदाह- यथा स्नेहमयाहीपः प्रशाम्यति निरन्वयः । तथा क्लेशमयाजन्तुः प्रशाम्यति मिरवयः ।।७४॥ एवं व सति के शोल्लुमबनतप्तशिलारोहणकेचादर्शनाशनविनाशब्रह्मचर्यावयः केवलमाएमोपयातायव । तयुक्तम्--
घेवप्रामाण्यं कस्यचित्यातवावः लाने धर्मेच्छा जातिवावावलेपः ।
संतापारम्भः पलेशनाशाय चेति ध्वस्तप्रजानां पञ्चलिङ्गानि जाजचे ॥७५।। इनमेव च तत्त्वमुपलभ्यालागि नीलपटेन
पोषरभरालमाः स्मरणिणितामा मानित मलयप नोन्नति तशङ्कारिणीः।
मुख देखना चाहिए एवं स्वाभाविक सुन्दर विकार-शून्य वेप धारण करना चाहिए। वह भगवान शिव चिरञ्जीवी हो, जिसने ऐसा मोक्षमार्ग प्रदर्शित किया ।। ७१ ॥ तदनन्तर ठकशास्त्र घेता बुद्ध धर्मानुयायी सुगतकौति नाम के विद्वान् ने कहा-'सबसे प्रथम आत्म ग्रह ( आत्म द्रव्य का आग्रह-ह) ही प्राणियों की महान् मोह फी सफल अन्धता है।
क्योंकि-जो आत्मा को जानता है, उसका आत्मा में निरन्तर स्नेह (राग) होता है और स्नेह होने से पंचेन्द्रियों के सुखों को तृष्णा करता है एवं सुखों को तृष्णा दोषों को स्वीकार करतो है। आत्मा के होते पर दूसरो जीब संजा होती है और जिससे स्त्र' ओर पर के विभाग से परिग्रह व दाप उत्पन्न होते हैं और इससे परिग्रह दोपों में अच्छी तरह बंधे हुए समस्त दोष उत्पन्न होते हैं ॥७२-७३ ।। जब आत्मदव्य का आग्रह ( हठ ) दूर नष्ट ) हो जाता है तर सन्तान-( द्रव्य ) रहित वित्त की उत्पत्ति लक्षणवाला द निरोध नामक दुसरे नाम वाला ऐमा मोक्ष स्वलरण' ( एसा क्षणिक निरंग परमाणुमात्र, जो कि स्वजातीय व विजातीय परभाणु से व्यावृत्त । निवृत्त ) है) प्राणियों का परिपूर्ण होता है । ससके विषय में कहा है-जैसे तेल के नष्ट हो जाने से दीपक अन्वय-( संतान ) रहित हुआ शान्त हो जाता है (बुझ जाता है वैसे ही यह जोब समस्त क्लेशों के क्षय हो जाने से अन्वय ( सन्तान ) रहित हुआ शान्त ( गष्ट ) हो जाता है ।।७४) ऐसा निश्चय होने पर केशों का उखाड़ना, तपी हुई शिला ( चट्टान } पर चढ़ना, केश के दिखाई देने पर भोजन का त्याग और ब्रह्मचर्य-आदि केवल बात्मा के उपघात के लिए है। कहा है--
ऋग्वेद-आदि वेदों को प्रमाण मानना, किसी का कर्तवाद ( ईश्वर को सुष्टि कर्ता को मान्यता गङ्गा-आदि में स्नान करने में धर्म को अभिलाषा, याह्मग-आदि जाति का गर्व करना और शरीर को कष्ट देना इस प्रकार नष्ट बुद्धिवालों की जड़ता के सूचक पांच चिन्ह हैं ॥ ७५ ।। गोलपट नामके कवि ने इसी विषय को लेकर निम्नप्रकार कहा है-इन ऐसो रमणियों ( कमनीय कामिनियों) को छोड़कर, जो कि कुचकलशों के भार से मन्द हैं, जिन्होंने काम से आये नेत्र चारों और संचालित किये हैं. और जिनमें किसी स्थान पर लयसहित पञ्चम स्वर से गाये हुए गीतों को कानों का सुख देनेवाली शङ्कार ( मनोज्ञ ध्वनि ) वर्तमान है, इमरे मोक्ष मुख १. स्वजातीयविजातीयव्यातक्षणिकनिरंशपरमाणुमात्र ।