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पञ्चम आश्वासः
स यदा दुःखत्रयोपतप्तचेतास्तद्विघात:कहेतुजिज्ञासोकिप्तविवेकनोताः स्फाटिकाश्मानमिवानन्दात्मानमप्यात्मानं मुखातुःखमोहावहारिवतमहबहकाराविधिवत: पस्या: सरसाम.ENIT : सनातनम्यापिगुणांधिकृतेः प्रकृतेः स्वरूपमवगच्छति. तवायोमयगोलकानलतुल्यवर्गस्य बोधवबहुधानकर्मसगस्य सति विसर्ग सकलझानजेएसंबन्धबंफल्यं कैवल्पमषसम्यते । 'समा टुः स्वरूपेऽस्थानमिति वचनात् । ततश्च
____ अनुभवत्त पिचत खायत विलसत मानयत कामितं लोकाः । आत्मव्यक्तिविवेकान्मुक्तिननु कि क्या तपत ।।६३॥' धूमध्वजः
'घृष्यमाणो यथाजारः शुक्लता नंति जाचित् । विशुद्धति फुतविधतं निसर्गमलिनं तथा ॥६४!! न चापमिषस्ताविषः समर्थोऽस्ति यवोंऽयं तपःप्रयाप्तः सफरनायासः स्यात् । यतः। वादावर्षा योषा षोडशवर्षोधित स्थितिः पुवधः । प्रोतिः परा परस्परमनयोः स्वर्गः स्मृतः सविः ॥६५||
वह आत्मा, जिसका चित्त तीन प्रकार के दुःखों (आध्यात्मिक आधिभौतिक व आधिदैविक कष्टों) से सन्तप्त है, अथवा पाठान्तर में उपलुप्त है और जिसका विवेक (सम्यग्ज्ञान) रूपो जलप्रयाह समस्त दुःखों को ध्वंस करने के कारणों के जानने की इच्छा से वृद्धिंगत हो रहा है, अथवा पाठान्तर में जिसका बिवेकरूपी जलप्रवाह उक्त दुःखों के ध्वंस करने के कारणों को जिज्ञासा व उत्कण्ठा से अङ्कित चिह्नित है, जब ऐसी प्रकृति का स्वरूप जानता है, जो कि स्फटिक मणि-सरोसी शुद्ध व आनन्द स्वरूप वाली आत्मा को महान्' । बुद्धि ), अहकार व १६ गण ( पाँच ज्ञानेन्द्रिय-स्पर्शनादि व पांच कर्मेन्द्रिय ( पायू, उपस्थ, वचन, पाणि व पाद एवं मन तथा रूप, रस, गंध, स्वर व स्पर्शतन्मात्रा ) आदि विकारों से, जिनमें सुख, दुःख व मोह ( अज्ञान ) को धारण करनेवाले परिवर्तन पाये जाते हैं, कलुषित ( मलिन-पापिष्ठ ) कर रही है एवं जो सत्व, रज व तम गुणों को समतारूप मरे नाम वाली है और जो, शाश्वत व्यापी गुणों पर अपना अधिकार किए हुए हैं तब यह
आत्मा ज्ञान के संसर्ग-सरीखे प्रकृति के ससर्ग का त्याग करती है, जो कि लोहे के गोल और अग्नि के संयोग सरीखा है, । अर्थात्-जैसे गरम लोहे में लोहा और अग्नि का संयोग संबंध है वैसे ही प्रकृति व पुरुष का संयोग संबंध है ) ऐसे कैवल्य ( चैतन्य रूप को धारण करता है, जो कि समस्त ज्ञान व ज्ञेय ( पदार्थ । के संबंध से शून्य है, तब आत्मा का अपने चैतन्य स्वरूप में अवस्थान ( स्थिति हो जाता है उसे मुक्ति कहते हैं । अत: जब आत्मा और प्रकृति के भेद ज्ञान से ही मुक्ति होती है तब हे सज्जनो! इच्छित वस्तु भोगो, पिओ, खाओ, मनचाही वस्तु के साथ विलास करो एवं इच्छित वस्तु का सम्मान करो, क्योंकि जब निश्चय से प्रकृति व आत्मा के भेद जान से मुक्ति होती है, तब क्यों निरर्थक तपश्चर्या करते हुए कष्ट उठाते हो ? ॥ ६३ ।।'
अथानन्तर 'घूमध्वज' नाम के ज्योतिःशास्त्र वेता ब्राह्मण विद्वान् ने कहा-'जैसे घर्षण किया जानेदाला अङ्गार ( कोयला ) कभी भी शुक्लता-शुभ्रता को प्राप्त नहीं करता वैसे ही स्वभाव से मलिन चित्त भी किन कारणों से विशुद्ध हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता ।। ६४ ।। परलोक स्वरूप वाला ताबिष ( स्वम ) प्रत्यक्ष प्रतीत नहीं है (अथवा पाठान्तर में दूसरा लोक विशेष स्वर्ग प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं है, जिसके लिये यह सपश्चर्या का खेद सफल खेदवाला हो सके । क्योंकि-बारह वर्ष की स्त्री और सोलह वर्ष को योग्य आयु वाला
१. महानियुक्त माध्यमते बुद्धिलभ्यते, चस्मादेवाहंकारो जायते, अहंकाराच्च षोडश प्रकृतयस्तपाहि-स्पर्शनादि पंच
बुद्धीन्द्रियाणि, पायूपस्थवचः पाणिपादाः मनश्चेति षट् कर्मेन्द्रियाणि, रूपतन्मात्र, रसवन्मात्र, गन्धत मात्र, स्वरतन्मात्र,
स्पर्शतन्मात्र पनि पंचतन्मात्राणि । ह. लि. सटिक ( ख ) प्रति के आधार से संकलित-सम्पादक २. साविषः स्वर्गः।
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