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पंचम आश्वास
'अहो, अपर एव कोऽप्यनयोः शकुनयोः सफलताम्रसूचकुलातिशायी शरीरसंनिवेशः' इति विमृदय 'चण्डकर्मन्, तिष्ठतु ताघदेतत्तवैध हस्ते पत्रिरमिथुमम् । अहमिधानीमेवम पुष्परथं सनायीकृश्यतत्कीरयारुतमिलासिनीजनपरिवृतः सहान्त:पुरेण पीठमविविधूपकनायकसामाजिकतोकानुगतः सहनफूटवस्यालयोपवने मारध्वजपूजार्थ यजिष्यामि । तत्र पुनर्पत. विनोदामेवं प्रदर्शयितव्यम्'। चण्डकर्मा 'यथाज्ञापयति देषः' प्रत्यभिधाय निश्वकाम | आजगाम च गरिकरसागितपटकुटीप्रभाजालविराजमानकुजराशीकमनेकोपकार्यापर्यायपरिगतपर्यन्तावनीकं तदुद्यानम् । सत्र च शाकुनासर्वज्ञेन परिणा भागवसेन, नक्षत्रपाठकेन धूमध्वजेन द्विजातिना खन्यवादविदा हरप्रबोधेन जटिना खरपटौषबुधेन सुगतकोतिना शाश्येन सह मुषा संबन्धसार्घकस्कन्धाक्लखितपतगपजरः स चण्डकर्मा
मदनशचित्रकान्सेवनदेवोमाणिपेशलप्रान्तः । अपरदलरागपतनश्लाघ्यरित्र काननयोणाम् ॥५८।।
'यह पक्षियों ( मुर्गों का जोड़ा तब तक तुम्हारे ही हस्तगत है क्योंकि इस पाप कोइल करके इस कणीरथ' ( दोनों पाश्वस्कन्धों से ले जाने योग्य पालकी विशेष ) पर आरूढ़ हुई बिलासिनीजनों ( कामिनियों ) बेटित हुमा अन्तःपुर की रानियों के साथ पीटमर्द ( कामशास्त्र के अध्ययन से मनोज्ञ बद्धिचाला पुरुष ), विट (विकृत वेषधारक ), विदुषक ( मसखरा ), नायक (विट-आदि वेपों का अधिकारी प्रधान पुरप) व सामाजिक संगीत-प्रवीण पुरुष) लोक से अनुगत हुआ सहस्रकूद वैत्यालय के उपवन में कामदेव को पूजा निमित्त जाकैगा । पुनः तुम्हें वहाँ पर पुल क्रीड़ा के लिए इस पक्षी जोड़े को दिखाना चाहिए।' चण्डकर्मा कोटपाल ने कहा-'जैगी राजा सा० की आज्ञा है ।' ऐसा कहकर वहां से निकला और उक्त उपवन में, जहाँ पर वृक्ष-श्रेणी गेरू के रस में रञ्जित हुई तम्बुओं को कान्ति-थेणी से शोभायमान है एवं जिसकी समोपवर्ती भूमि अनेक उपकार्या' (मठमन्दिर-आदि राजसदन' की रचना से व्याप्त है, आया। वहां पर उस चाहकर्मा नाम के कोट्टपाल ने, जो कि शकुन सर्वज्ञ (पाकुन शास्त्रवेत्ता) नाम के विष्णुभक्त विद्वान् के साथ व 'धूमध्वज' नाम के ज्योतिषशास्त्र वेता ब्राह्मण बिद्वान के साथ एवं पृथिवो के मध्य गड़े हुए धन को जाननेवाले हरनबोय नाम के जटावारी तपस्वी के साथ तथा ठकशास्त्र वेता बद्धधर्मानुयायो सूगतकीति नाम के विद्वान के साथ वर्तमान है और जिसने व्यर्थ के संबन्धवाल सार्धक ( साडूभाई ) के स्कन्ध पर पक्षियों का पिजरा स्थापन किया है, ऐसे अशोक वृक्ष के मूल में निवास करने वाले भगवान् (पूज्य ) श्री सुदत्ताचार्य को देख कर मन में निम्न प्रकार विचार किया।
मनोज्ञ अशोक वृक्ष को देखिये, जो कि एसे पल्लवों से मनोज्ञ है, जो काम-वाणों-सरोखे चित्र व मनोज्ञ
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१. 'वीरपः प्रवहणं उपनं च समे त्रयम्' इत्यमरः , कणिपु स्वन्ध रश कर्णीरथः दीर्षोभमपाल स्कन्धेनोहमानो
रघः विमानाख्यः । २. तथाहि-पीटमर्दः स विज्ञेयो : कामागमवावधीः । स्त्रीप्रसादविनोदजी विटो विकृतवैपभाका ॥१॥ जलवस्य यः पात्रं स विषक उमायते। यो गोष्ठधा बिटबंषानामधिगत सनायकः ॥ ३ ॥ यो गोतवाद्यनत्यज्ञो नेपथ्यविधिकोविदः । सामाजिकः स चोदव्यो यदच देवाः कलागमे ॥३॥
ह.लि. सटि (ख) प्रति से संकलित-सम्पादक ३. उपकार्योपकारिका मठमन्दिरादि राजसदन । *. 'पर्यायोऽवसरको निर्माणे द्रव्यधर्म च । ४. साधुक:--निजभाभिगिनीपतिः ।