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पञ्चम माश्वास:
शिलीमुखसंपातः पटहेषु कराहतिः, नमसितेषु पदबन्धः, रङ्गलिषु
परभागम्
प्रसून पहारेषु पतिचरित्रेषु विग्रहाश्रुतिः सोपानेषु विषमता, बेहलीषु लखनापराधः सृपाटीषु करग्रहणम्, अररेषु द्विषाभाषः,शास्त्रेषु परषणपश्रवणम्, उपन्यासयोग्यासु विगुह्यवादः पर्व क्रियासु वर्णसंकीर्णता, विनेयवनयनेषु भ्रुकुटिकरणम्, वातायनेषु मार्गता, केतुकाण्डेषु स्वभावस्तत्त्वम्, वैजयन्तीषु परप्रणेयता, मणिवितानेषु गुणनिगूहनम् रजनिमुखेषु गलग्रहोपदेशः, शकुनावासेषु विलयविलसितम् लिपिकरेषु नाञ्जनोपार्जनम् ।
मैं गूढ़मन्त्र प्रयोग | गुप्तमन्त्रों से प्रयोग — उच्चाटन आदि कर्म करना ) नहीं था । जहाँ पर वसंध्थानों में देहसन्नता (शारीरिक कष्ट) थी परन्तु मनुष्यों में देहसन्नता ( शारीरिक पीड़ा ) नहीं थी। जहां पर मलीमसमुखता (कृष्णता -- मलिनता) अगर, अग्नि व गृहाङ्गणों में श्री परन्तु मानवों के हृदयों में मलीमसमुखता (दुष्टता) नहीं थी । जहाँ पर धर्मगुण-विजृम्भण' (धर्म-- प्राणिरक्षा आदि व गुण-विजृम्भण - ज्ञानादि प्रशस्त गुणों का विस्तार) मुनियों में था परन्तु योद्धाओं में धर्मगुणविजृम्भण ( धनुष पर डोरी का झारोपण ) नहीं था। जहाँ पर शिलोमुखसंपात * ( भीरों का पतन ) पुष्पहारों में था, परन्तु संग्राम में शिलीमुख संपात ( वाणों का प्रक्षेप) नहीं था । जहाँ पर कराहति ( हस्तों से ताड़न ) मृदङ्गों या नगाड़ों में थी, परन्तु मनुष्यों में कराहति ( विशेष राज्य टैक्स से पीड़न नहीं थी ।
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जहाँ पर पदबन्त्र (श्लोकों के चरणों का गुम्फन) नमसितों * (नमस्कारों) में था परन्तु मनुष्यों में पदबन्ध ( अन्याय करने से पैरों का बन्धन ) नहीं था । जहाँ पर परभाग कल्पन ( शोभा करना ) रङ्गबल्लियों ( नाटचभूमियों या चित्र - रचनाओं ) में था, परन्तु जहाँपर पर-भागकल्पन ( शत्रुओं को धन की प्राप्ति या शत्रुओं का उदय नहीं था । जहाँ पर विग्रहृदण्डभूति ( शारीरिक कष्ट सहन की प्रतिज्ञा ) मुनियों के चरित्र - पालन में थी परन्तु मानवों में विग्रहृदण्डभूति ( युद्ध और तीक्ष्ण दण्ड विधान का श्रवण ) नहीं था । जहाँ पर विषमता (असमानता ) सीढियों में थी। परन्तु मनुष्यों में विषमता नहीं थी । जहाँ पर लङ्घनापराध ( लांघने का दोष ) देहलियों में था परन्तु मनुष्यों में लङ्घनापराध ( कड़ाका करने या तिरस्कार करने का दोष ) नहीं था। जहाँ पर करग्रहण ( हाथों से उठाना व धरना ) पुस्तकों में था परन्तु मनुष्यों में कर ग्रहण ( दान ग्रहण ) नहीं था । जहाँ पर द्विद्यामान ( खोलना ) अररों (किवाड़ों) में था, परन्तु जनता में द्विधाभाव ( वेमनस्य ) नहीं था । जहाँ पर दूपणोपत्रवण ( श्रुतिकटु व अश्लील आदि काव्य दोषों ) का श्रवण काव्यशास्त्रों में था परन्तु मनुष्यों में परदूषणोपश्रवण ( दूसरों की अपकीर्ति या अपवाद की प्रतिज्ञा ) नहीं था । जहाँ पर विगृह्यवाद (समासपूर्वक कथन ) उपन्यास योग्य में था । अर्थात्--नीतिशास्त्रों या वाक्यों का अभ्यास समास पूर्वक होता था परन्तु मनुष्यों में विगृह्यवाद - संग्रामवाद नहीं था । जहाँ पर वर्णसंकीर्णता' ( स्तुतियों की मिश्रा) पर्वक्रियाओं ( उत्सव-दिनों) में थी परन्तु मानवों में वर्णसंकरता नहीं थी । जहाँ पर भ्रुकुटि - करण ( भोहों का चढ़ाना) शिष्यों की शिक्षाओं में था परन्तु मनुष्यों में युद्ध - निमित्त भ्रुकुटि चढ़ाना
१. 'प्रयोगः कार्मणे पुंसि प्रयुक्तो निदर्शने' इति विश्वः । 'गूढं रहसि गुप्ते च' इति विश्वः । २. पीड़ा । ३. न तु सुभटेषु 1
३. धर्ग: स्थादस्त्रियां पुण्ये धर्मो न्यायस्वभावयोः । उपमायो यमाचारवेदान्तेऽपि धनुष्वपि ॥ १ ॥ इति विश्वः ॥ गुण रूपादिसाविव। विहरितादिषु । सूरेऽरधाने सध्यादी रज्जो मौध्य वृकोदरे इति विश्वः । ४. भ्रमर न तु संग्रामे वाणाः ।
५. नमस्कारं ।
परभागः शोभा, गरोदयं च ।
६. शोभा न तु परेषां श्रूणां द्रव्यभागः ८. योग्यामोपति, अभ्यासे अभ्यासविषये समासपूर्ववादः न तु संग्रामवाद::
९. 'वर्णो द्विजादी शुक्लादी स्तुतो वर्णं तु वाक्षरे' इत्यमरः ।
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७. कपाटेषु ।
योग्या अभ्यासः ।