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पञ्चमें आश्वासः उन्मीलिताहिलोकापि सकलजनोपभोग्या, अहोमवालापि प्रत्यानुसाहताशना, निःस्पृहोपभोग्यापि समणिनिश्चया, विहितमावतारापि प्रवशितदेवालया।
कण्ठीरवा ( समीपवर्ती सिंहबाली ) होती है। जो वैसी 'रमोपशोभिता ( चित्रलिखित लक्ष्मी मे सुशोभित ) है जैसे सुपेरु पर्वत की नटी रमोपगाभिता ( स्त्रियों से मण्डित ) होती है । जो वैसी प्रलम्बितकुमुमशरा (चित्र-लिखित लटकी हुई पुष्पमालाओं बाली ) है जैसे सपण्यसंस्था ( फूलमालाओं के बैंचने का स्थान ) प्रलम्बित कुसुमारा (लटकी हुई फूल-मालाओं से घुस) होती है । जो वैसी सविधविधुबध्नमण्डला ( समोप में चित्र-लिखित चन्द्र व सूर्य मण्डलबाली ) है जैसे सुमेरुपर्वत को तटो सविधविधुबघ्नमण्डला ( समीपवर्ती चन्द्र व सूर्य मण्डलवाली) होती है। जो बैसी शकुलियुगल-अद्विता ( चित्र-लिखित मछलियों के जोड़ा वाली) है जैसे पाण्डुराजा की मुद्रिका (अँगुठी ) शकुलियुगल-असित्ता ( मत्स्य चिह्नवाली) होती है। जैसे प्रशस्त शकुन-सम्पत्ति ( लक्ष्मी) जल-पूर्ण घट के दर्शन से मनोज्ञ होती है वैसे ही जो चित्र-लिखित जल-पूर्ण घर के दर्शन से मनोज्ञ है। जैसे श्री विष्णु की शरीर-सम्पत्ति कमलाकर सेविता ( लक्ष्मी के करकमलों से सेवा की हुई) होती है वैसे जो कमलाकर सेविता ( चित्र-लिखित सरोवर वाली ) है । जैसे समवसरणसभा प्रसाधित सिंहासना (सिंहासन से अलङ्क त) होती है वैसे जो प्रसाधित सिहासना (चित्र-लिखित सिंहासनरो महित) है।
अब विरोधाभास अलवार से शेष स्वप्नावली का निरूपण करते हैं जो अजड़ाशय-अनुगता'(चतुर अभिप्रायवाली) होकर के भी जड़ निधिमती ( मूर्खता की निधि ) है। यहां पर विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जो चतुर अभिप्राय से युक्त होगी, वह मूर्खता की निधि कैसे हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि फ्लेपालंकार में इ और ल एक समझे जाते हैं, अतः जो अजलाशय-अनुगता ( तालावरूप नहीं ) है और अपि (निश्चय से ) जलनिधिमती (चित्र-लिखित समुद्र-युक्त है। जो उन्मीलिताहिलोका' : प्रकट हुए सर्पसमूहबाली होकर के भी सकलजनोपभोग्या ( समस्तजनों द्वारा सेवन करने योग्य ) है। यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जहाँ पर साँपों का समुह प्रकट होगा वहां पर समस्त जन कैसे निवास कर सकते हैं ? इसका परिहार यह है कि जो उन्मीलित अहिलोका ( प्रकट हुए चित्र-लिखित नागेन्द्र-भवन वाली ) है एवं जो निश्चय से समस्त मानवों द्वारा सेवन करने योग्य है । जो अहोमशाला ( होमशाला न ) होकर के मो प्रत्यक्षहुत' हुताशना ( जहाँ पर प्रत्यक्ष में अग्नि में हवन किया गया है, ऐसी ) है ! यह भो बिरुद्ध है, क्योंकि जो होमशाला नहीं है, वहाँ पर प्रत्यक्ष में अग्नि में हवन करना कैसे संभव हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो सहस्रकूट मन्दिर होने के कारण होमशाला नहीं है एवं निश्चय से जो प्रत्यक्ष हुतहुताशना (प्रत्यक्ष प्रतीत हुई चित्र-लिखित अग्नि ज्वाला बाली) है। जो निःस्पूह उपभोग्या ( कामना-शून्य या' सांसारिक बन्धन-मुक्त साघु-पुरुषों द्वारा सेवन करने योग्य ) होकर के भी समणिनिचया" ( बलराशियों से मुक्त ) है ! यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो नि:स्पृह साधुपुरुषों द्वारा सेवन योग्य होगी, वह रत्नराशि से युक्त कैसे हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि जो १. रमा लक्ष्मीः स्त्री च। २. तटी-कटणी । ३. पाण्डुराजः मुद्रिकायो मत्स्थचिहं भवति । ४. लक्ष्मीहस्त, पक्षे सरोवर चित्रे लिखितं । ५. प्लेषोपमालंकारः। ६. दक्षाशयप्रासा।
समुद्र । ७. प्रकरितनागालया।
८.६ता लिखिता अग्निज्वाला। १. लिखितरत्नसमूहा-रत्नराशिः लिखिता।