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यतिलकचम्पूकाव्य यत्र चाभिषेकासलिलेय कलुषता, मलयजेषु जडघर्षगम्, अक्षतेषु मुशलाभिघातः, वपुष्पेषु गुणविभुखता, चरुधु रससंकरः, प्रदीपेषु मलिनोद्गारः, धूपमेष्ववसानवरस्यम्, फलस्तवकेच पालाशोपरोषः, कुसुमाञ्जलिषु विनिपातः स्तुतिष परलोकप्रार्थनम्, जपेष गूढमन्त्रप्रयोगः, प्रसंख्यानेषु वेहसन्नता, अगुरुबहतशालाजिरेषु मलीमसमुखत्वम्, मुनिषुधर्मगुणविजम्भणम्,
निःस्पृहों ( कामना-शून्य महापुरुषों) द्वारा सेवनीय है और निश्चय से जो समणिमित्रया ( चित्र-लिखित रत्नराशि-युक्त ) है और जो विहित-मत्यं-अबतारा ( मनुष्यों के आगमन बाली) होकर के भी प्रदर्शित देवालया ( देवों का स्थान प्रदर्शित करनेवाली ) है। यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो मनुष्यों का आगमन स्थान होगा वह देवों का स्थान फेसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो विहितमावतारा ( मनुष्यों के आगमन वाली ) है और निश्चय से जो प्रदर्शितदेवालया' (चित्र-लिखित स्वर्ग-विमान को प्रदर्शित करनेवाली ) है।'
जहां पर कलुषता' (कपुर-आदि को मिश्रता ) अभिषेक संबंधी जलों में थी परन्तु मनुष्यों के हृदयों में कलुषता ( राग ) नहीं थो । जहाँ पर मलयागिर चन्दनों में जडधार्पण ( इलेप में इ और ल का अभेद है; अत: जल-घर्षण-जल म पीसना) या परन्तु मनुष्यों में जम-धर्षण (जड़ता--मूर्खता से कूटे जाने का काष्ट) नहीं था । जहाँपर मुशलाभिषात ( मूसलों से कूटना ) चांवलों में था परन्तु मनुष्यों में मुशलाभिवात ( अनैतिक प्रवृत्ति से मूसलों द्वारा दण्डित किया जाना ) नहीं था। जहां पर पुष्पमाला के पुष्पों में गुणविमुखता (तन्त-गम्फिता थी परन्तु मनुष्यों में गण-विमुखता (ज्ञानादि गणों से घिमखता-पराङमावता नहीं थी। जहां पर रससंकरता ( माध्य-आदि रसों की मिश्नता) चरुद्रव्यों । मोक्कादि मेवेद्य पदार्थों ) में थी परन्तु मनुष्यों के हृदयों में रससंकरता ( राग) नहीं थी । जहां पर मलिनोद्गार" ( कृष्णा कज्जल का वमन) दीपकों में था, परन्तु मनुष्यों के हृदयों में मलिनोद्गार ( दोषों का उदय ) नहीं था। जहां पर अवसान वेरस्य ( अन्त में विरसता) धूप के धूमों में था परन्तु मानवों में अवसान वैरस्य (मृत्यु के अवसर पर पीड़ा) नहीं था अथवा अकाल मृत्यु का कष्ट नहीं था। जहाँपर पलाशोपरोध (पलाशों-पल्लवों से गहित) फलों के गुच्छों में था। अर्थात्-जहाँपर फलों के गुच्छे कोमल पत्रों से मण्डित थे एवं जहाँपर मानवों में भी पलाशोपरोध ( राक्षसों का निवारण ) था। अर्थात्-जहाँ पर मनुष्यों में कोई भी मांसभक्षी नहीं था।
जहाँ पर विनिगात ( अवपातनीचे भूमि पर गिरना ) पुष्पाजलियों में था परन्तु मनुष्यों में विनिपात (देवत-व्यसन-कुभाग्योदय से उत्पन्न होनेवाला आकस्मिक कट) नहीं था। जहां पर परलोकप्रार्थन ( स्वर्गलोक की इच्छा ) स्तुतियों में था परन्तु मनुष्यों के हृदयों में परलोक-प्रार्थन ( शत्रुता की भावना ) नहीं था। जहां पर गूढमन्त्र'-प्रयोग ( एकान्त में मन्त्रों का उच्चारण ) जपों में था परन्तु मनुष्यों
१. स्वर्गविमाना। २. विरोधाभासालंकार:--ह. लि. सटि. ( ख ) प्रति से सफलित-सम्पादक ३. कर्पूरादिमिश्रितत्वात मित्रता, न तु हृदयेपु रागः । ४. मिश्रना, न तु हृदयेप रागः । ५. 'मलिनं कृष्णदापयोर्मलिनो रजःस्वलायाम् । ६. राक्षासनिवारणं, मांसभक्षी कश्चिन्नास्ति पक्षे पत्रसहिताः फलगुच्छाः वर्तन्ते। ह0 लि. (ख) प्रतिरो संकलित-- ... 'पलायो राक्षसः पल्लवश्च यशपञ्जिका से-संकलित ७. विमिपातस्तु दैवतं व्यसममवपातश्च । ८, गूढ़ रहः संवृतयोः देवादिसाधने वदांगे गुसवादे च ।