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पञ्चम आश्वासः श्रीमानशेषभुवनाविपतिजिनेन्द्रश्चन्नप्रभस्तव तनोतु मनीषितानि ।
यहीक्षणादपि ममःकुमुवाकरः स्याल्लोकस्य लोधनदलामृतपूरसारः ॥१॥ तवं सर्पस्य समातिजिनपते त्यं नाप कर्मान्तभूस्खं राता परमस्वमद्भतरुधो लोफेश ते ज्योतिषी ।
स्वन्नामामृतमत्र योगिविषयं त्वं देव तेजः परं एवं खानङ्गम सर्वगोऽपि नियतः पापा: लमस्तो भगत् ॥२॥ सदन्हो सकलविक्सीमन्तिनोसीमन्तसंतानिसप्रतापसिन्दूर चुरितविदूर, तस्मादरम्तव्यसनम्पालव्यासपाशासुरभिनिवेशात
ऐसे श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र आपके कल्याणों को वृद्धिंगत करें। जो कि अन्तरङ्ग लक्ष्मी ( अनन्तदर्शनादि ) व बहिरङ्गालक्ष्मी ( समवसरण-नादि विभूति ) से विराजमान होते हुए समस्त तीन लोकों के स्थामी हैं। जिनके दर्शनमात्र में भी चित्तरूपी कुमुद-( चन्द्रविकासो कमल) वन, भव्यजीव-समूह के नेत्ररूपपत्तों को अमृतधारा के प्रवाह से विशेष कृतार्थ हो जाता है। ॥ १ ॥ हे जिनेन्द्र ! आप समस्त प्राणी-समूह को सदाशरण ( दुःख-नाश करने में समर्थ ) हो। है नोक के स्नायो : ला का ज्ञानआदि ) की विनाशभूमि हैं।
हे भगवन् ! आप स्वगं व मोनसुख के देनेवाले व अभिलषित वर देनेवाले हैं। हे तीनलोक के स्वामी ! आपके ज्ञान-दर्शन लक्षणवाले दोनों नेत्र, आश्चर्यजनक लोक व अलोक को प्रकाश करनेवाली दीप्ति से युक्त है । हे भगवन् ! आपका नामरूपी अमृत ( मोक्ष-सुख का कारण होने से ) इस संसार में गौतममण घरादि योगोपुरुषों द्वारा जानने योग्य है । हे परम आराधना योग्य प्रभो! आप कर्ममल कलर को भस्म कारनेवाले होने से उत्कृष्ट अग्निरूप हैं। हे स्त्री-रहित प्रभो ! आप केवलज्ञान से लोकाकाश व अलोकाकाश में व्यापक ( मर्वत्र व्याप्त ) होते हुए भी चरमशरीरप्रमाण होने से मर्यादीभूत है, अतः आप संसार में स्थित प्राणी-समूह को अज्ञान से रक्षा कीजिये । अभिप्राय यह है-कि पृथिवी, जल, वायु, अग्नि, यजमान, आकाश, चन्द्र व सुर्य ये शंभु की आठ मूर्तियां हैं, उसके निराकरणाचं आचार्यश्री ने चन्द्रप्रभ तीर्थंकर को उक्त आठ भूतियुक्त निर्देश किया है ! यथा 'सदागनिः' पद से वायुमूर्ति व 'कर्मान्तभूः' पद से पृथ्वी मूर्ति सूचित किये गए । 'कर्मान्तभूः' पद का यह अर्थ है कि कर्मक्षय को पृथ्वीरूप गणधरादिसमूह या भव्यसमूह को रक्षा करनेवाले। इसीप्रकार 'दाता' पद से यजमानमूति, 'ज्योतिषी' पद से 'चन्द्रभूति' व 'सूयंमूति' कथन किये गए एवं 'वन्नामामृतम्' पद से जलमूर्ति, परसतेज: पद से 'अग्निमूर्ति' और 'सवंगोऽपि' तथा 'अनङ्गन' इस संबोधनपद से आकाशमति निरूपण की हुई समझनी चाहिए ॥ २॥ उसके बाद समस्त दिशारूपो स्त्रियों के शिर के फेशमार्गों पर प्रतापरूपी सिन्दूर को विस्तारित करनेवाले व पाप से दूरवर्ती ऐसे हे मारिदत्त महाराज ! उस मुर्ग के बघरूपी पाप-युक्त अभिप्राय से, जिसमें दुष्ट स्वभाववाले दुःख-रूपी दुष्टगज अथवा कालसर्प का गंगमरूपी पाश ( बन्धन ) बर्तमान है, देवी-समूह द्वारा मेवन किये हा मध्य भागवाले 'सुवेल' नामक पर्वत के ईशानकोण की समीपवर्ती स्वभावतः प्रचुर जलवाली भूमि में वर्तमान वृक्ष पर में (यशोधर, मयूरकुलमें जन्म लेनेवाला हुआ। अर्थात्-उस सुबेल पर्वत के समीपवर्ती नदी तट पर वर्तमान वृक्ष पर मैं ( यशोधर ) मोरफुल में मोर हृझा । सुवेल पर्वतका निरूपण१. तपमानकारः। २. रूपक: फ्लेषालंकारश्च ।