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पञ्चम आश्वास:
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faraमपि सवामनम् अराकाननमपि ससोमम्, अराक्षसक्षेत्रमपि सपूतनम् अमहानवमी विनयपि समानयनम् असलमपि सनिःश्रेणीकम् वराजसममपि सलेखपत्त्रम्, अभ्यम्बकमपि सत्रिनेत्रम्, असंभलीपाटकमपि तवम्बरतनीकम् असमतीकरसिकमपि सकवचम् अक्षयकालविनमपि नष्टविविना बिपेन्शनम् ।
जो अदिग्गजकुल ( दिग्गजेन्द्रों के समूह से रहित ) हो करके भी सवामन ( यम- दिग्गज सहित ) है | यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो दिग्गजेन्द्रों के समूह से रहित होगा वह यमदिग्गज सहित कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अ-दिग्गजकुल ( जिसमें शब्द- समूह विद्यमान नहीं है। ऐसा है । और निश्चय से जो सवामन (खाये हुए को वमन करानेवाले मदनवृक्ष से सहित ) है | जो अराकानन (पूर्णिमा का आनन न ) होकर के भो ससोम ( चन्द्र सहित ) है । यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो पूर्णिमा का आनन नहीं हैं, वह चन्द्र-सहिल कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अ-राकानना । देखो हुई रजःस्वला कन्या से रहित ) है और जो निश्चय से समोम ( हरीतकी वृक्ष सहित ) है । जो अराक्षस क्षेत्र राक्षस-भूमि न ) हो करके भी सपूतन ( पूतना नाम की राक्षसी सहित) है। नहीं विरोध है, यो राक्षसों की भूमि नहीं है वह पूतना राक्षसी सहित कैसे हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि जो अर- अक्षस क्षेत्र है। अर्थात् — जो पहिए की नाभि व नेमि के बीच की लकड़ी एवं धुरी का स्थान नहीं है और निश्चय से सपूतन ( हरीतकी - वृधा सहित ) है । जो अमहानवमी दिन ( महानवमी दिन न हो करके भी समातृनन्दन ( देवियों को आनन्ददायक ) है | यह भी विरुद्ध है। क्योंकि जो महानवमी का दिन नहीं है वह चामुण्डा आदि माताओं को आनन्ददायक कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अमहा नवमी दिन ( रोग व हाहाकार शब्द से व्याप्त अष्टांगों का नवमी रांग ) है और निश्चय से जो समातृनन्दन ( फरञ्ज-वृक्ष सहित ) है जो असोबत ( राजमहल का उपरि भाग न ) हो करके भी सनिःश्रेणीक ( सीढ़ियों से सहित । है । यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो राजसदन का उपरिभाग नहीं है, वह सीढ़ियों सहित कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो असौधन्तल ( निर्जल प्रदेश ) है और निश्चय से जो सनिःश्रेणीक ( खजूर वृक्षों से सहित । है । जो अराजसदन ( राजमहल न ) हो करके भी लेखपत्र ( दूतों के लेखपत्र सहित ) है । यह भी विरुद्ध है क्योंकि जो राजमहल नहीं है, वह दूतादिकों के लेख पत्र से सहित कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अराजसदन ( राजाओं के समीचीन जीवन से रहित ) है और जो निश्चय से सलेखपत्र ( ताड़वृक्षों से सहित ) है । जो अत्र्यम्बक ( रुद्र-रहित । हो करके भी सत्रिनेत्र ( त्रिलोचन - मुद्र सहित ) है । यह भी विरुद्ध हैं, क्योंकि जो राद्र-रहित होगा यह तीन नेत्रों वाला रुद्र कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो अध्यम्बक ( अत्रि ऋषि वगैरह का गमनशील स्थान ) नहीं है और निश्चय से जो सत्रिनेत्र ( नारियल के वृक्षों से व्याप्त) हैं । जो व्यसंभलीपाटक (कुट्टित्नियों का समूह न) होकर के भी सलम्बस्तनीक (वृद्ध स्त्रियों से सहित ) है | यह भी विरुद्ध है क्योंकि जो कुट्टिनियों का समूह नहीं है, वह वृद्ध स्त्रियों से सहित कैसे हो सकता है ? उसका समाघान यह है कि जो असंभलीपाटक ( समीचीन पटलों या तख्तों का चीरने वाला) नहीं है और निश्चय से सलम्बस्तनीक ( चिञ्चा वृक्ष सहित ) है । जो असमनोकरसिक ( संग्राम में अनुरक्त न ) होकर के भी सकवच ( बख्तर सहित ) है । यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो संग्राम में अनुरक्त नहीं है, वह बख्तर- धारक कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो असमानीका रसिक ( वक्र ( टेढ़ीं ) क्षुद्र नदियों के जल वाला ) है और निश्चय से जो सकवच ( पर्यटक वृक्ष सहित ) है । जो अभयकालदिन ( प्रलय काल का दिन न ) होकर के भी नष्टदिग्दिनाधिपेन्दुदर्शन ( जिसम में दिशा, सूर्य व चन्द्र का दर्शन नहीं देखा गया है ) ऐसा है । यह भी विरुद्ध है क्योंकि जो प्रलय काल का दिन नहीं हैं, वह दिशा, सूर्य व चन्द्रादि के न दिखाई
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