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पंञ्चम अाश्वास:
यस्य चरत्मसंधानविनीतवृत्तयः परविग्रहप्रवामनकुशलाः स्वभावगुणप्रणयिनः परिप्राप्तधवणा वाणा एवासाम्यसापनोस्सवाः सचिवाः, परे । फेवलं सभाशोभायमस्वाषराण्यलंकरणानि । स्वपरप्रजानां संपस्यापसिकरमसहाय साहसमेव पुरोहितः, परस्तु पर्वविवसेषु यसुवितरणस्थानम् । अशेषशाश्वलस्यानहेतुरप्याजवयं पौर्यमेव सेनापतिः, परस्तु भत्यभरणीपसमयसूचनं चेतनभुपकरणम् । अखिलसमुशवषिवसुधालले दुर्वारप्रसरपर्यमैश्वर्यमेष द्विपदण्डपरः प्रतीहारः, परस्तु सेवकानामुपासनावसरनिवेवनस्तीर्थपुराषः । समराङ्गणेषु परहदयंगमप्रवणानि शास्त्रसंप्रेषणान्येक दूतमणिपः, परे तु राजनीतिमपन्थाः । त्रिवारप्यप्रतिहताटोपाः प्रतापा एव दुर्गमूममः, परास्तु विभवधिनियोगद्वाराणि । बेधसाप्प
जोड़े अर्थात-परिमितत्व (थोड़ा दान करना) व कालहरण ( दान में बिलम्ब करना ) यह पहला जोड़ा । आशादर्शन । याचकों की आकांक्षा का भङ्ग करना ) श्रवणगतल ( प्रार्थनाओं का न सुनना ) यह दूसरा जोड़ा। अवधीरण (याचकों का तिरस्कार) व अनवसर (मौका न होना) वह तीसरा जोड़ा और महासात्विकत्व ( प्रसन्न रहना) व ऐश्वर्य यह चौथा जोड़ा । उक्त चारों जोड़े क्रमशः जिसकी प्रेमपूर्वक त्यागशीलता में और प्रत्युपकारों के करने में एवं पूज्य पुरुषों के सत्कार करने में तथा स्वेच्छाचारों ( अनैतिक प्रवृत्तियों) में विषय भाव को प्राप्त नहीं हुए । अर्थात्-जिसकी प्रेमपूर्वक की हुई दानशीलता में थोड़ा दान करना व विलम्ब से दान करना नहीं है। जो प्रत्युपकारों के करने में याचकों की आकाङ्कामों का भङ्ग न करता हुआ तत्काल दान देता है तथा उनकी प्रार्थनाओं को सुनता है। गवं जो पज्य पुरुषों में शन्कार करने के अवसर पर उनका तिरस्कार नहीं करता एवं अवसर नहीं चूकता । अर्थात् आज मेरा कुटुम्बीजन भर गया है। अतः अभी दान देने का अवसर नहीं है इत्यादि नहीं करता। जो अपनी प्रसन्नता व ऐश्वर्य का उपयोग स्वेच्छाचारों में नहीं करता।'
जिसके ऐसे वाण ही मन्त्री हैं, जो कि अपने सन्धान ( योजन ) में नम्रवृत्ति-युक्त हैं और मंत्री भी सन्धि कार्य करते हैं। जो, शत्रुओं के युद्ध को शान्त करने में दक्ष हैं और मन्त्री भी युद्ध को यान्त करते हैं। जो स्वभावगुणप्रणयी (प्रकृति से धनुष को डोरी पर स्थायी ) हैं और मन्त्री भी स्वभावगुणप्रणयी (बन्धि व विग्रह-मादि में स्नेह करनेवाले ) होते हैं तथा जो परिप्राप्तश्रवण ( आकर्षण-वेला में खींचनेवाले के श्रवण (कान) प्राप्त करनेवाले हैं और मन्त्री भी परिप्राप्त श्रवण गुलमन्त्र के कथन के लिए कानों के समीप जानेवाले) हात है एवं जो असाध्य साधनोत्सव (शत्रु को मृत्यु-भाषण में उद्यम करने वाले हैं और मन्त्री भी असाध्य कार्य को सिद्ध करते हैं दसरे मंत्री तो केवल राजसभा की शोभा के लिए जङ्गम आभरण मात्र हैं अपनी प्रजाओं में लक्ष्मी उत्पन्न करने वाला और शत्रुओं की प्रजाओं में आपत्ति उत्पन्न करने वाला अद्वित्तीय साहस (अद्भत कर्म हो जिसका पुरोहित ( राजगुम् ) है दूसरा पुरोहित तो अमावस्या-आदि पर्वदिनों में धन वेने का स्थानमात्र है। समस्त शमु समूह को शक्ति को नष्ट करने में कारणीभूत व स्वभाव से मुख्य जिसकी वीरता हो सेनापति है, दूसरा सेनापति तो संघकों के भरणपोषण संबंधी समग्न का कथन करने वाला सजीव उपकरण है । चार समुद्रों की मर्यादावाले पृथिवीमण्डल पर दुःख से भी निवारण करने के लिए अशक्य प्रवृत्ति वाला जिसका ऐश्वर्य ( प्रभुत्व ) ही शत्रुओं के कार दण्ड-निपातन करने वाला प्रतीहार (द्वारपाल) है, दूसरा द्वारपाल तो सेवकों को सेवा का अवसर निवेदन करनेवाला यात्राभूत पुरुषमात्र है । मुबाङ्गणों पर शत्रुओं के हुँदय विदीर्ण करने में चतुर जिसके शस्त्र-मोचन ही दूत ( राजा का संदेश व शासन ( लेख ) को ले जानेवाले ) व प्रणिधि ( गुप्तचर ) हैं, दूसरे दूत व गुप्तचर तो अर्थशास्त्र के विस्तारमात्र हैं। देवों द्वारा भी नष्ट करने के लिए अशक्य विस्तारदाले जिसके प्रताप ही दुर्गभूमियाँ ( जलदुर्ग, वनदुर्ग व पात्रुदुर्ग-भूमियो )
१. पथासंस्थालंकार: 1