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पञ्चम आश्वासः
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वैरिफरिशिरोविकारणेषु महतो मृगयाव्यसनपरवशता, न पुनरितरेषु निरपराधेषु वनमृगेषु । नपयशाजिराष्टापवभूमिकायां चरगापगतिबन्धररातिचतुरङ्गेषु प्रफामं घूसदुलखितप्ता, न पुनरितरेषु नरपासकुलफलधरेषु । सकलरत्नाकर. मणि मेखलायां वसुमतीयोषायां रिटान्स सक्तप्ता, न पुनरिण मानविध्वंसने मिग्लासिनीजनेषु । अनन्यसामान्यअन्योपागितभयानिलविम्भितेन सुभटकुटमायोचिलाउन पहनावलपानलन दुर्धर्षाणां रिद्विषामशेषयन.पानेश्वतीवशण्डता, न पुनरिसरेवेहिकामुत्रिकफलविलोपनो मेष्वासर्वेषु । अकाउजगदुपद्रवदानवेषु मानवे वण्डपाये वाद मनोमनीषितानि, म पुनर्मूलतोल्लासक्शावर्तनेषु परिजनेषु । रणकेलिकण्ट्रलानामरीणामायोधनवसुभापामभिमुखीभावकरणेषु वच.कर्कशयनहारे परमं नपुग्यम्, न पुनरवलोकनमात्रविनयपरिष्वजासु प्रजामु। आखण्ड ब्रह्माण्डम्बहमरफरालः प्रसिपमध्याल: संचितस्य होतिकुलपनस्यापहारे गा पृष्लुता, न पुनरात्माम्युक्यप्रणमिभिकपालिस्य प्रविणोजितस्य, संपरायवरावारिषु शवशल्लकीनगभङ्गप्रसोभनेन गजग्रहणेषु महान्ति कुतहलानि, न पुनरितरेण चौरपारपाशादिनोपाययतिकरण । आसंसारमवमश्वयंमुरभिधु यशश्चन्दनवन्धनेषु साभिलाषं मनः, न पुनरितरेषु क्षणमात्रपरिमसमनोहरानुधन्येष गन्धेष ।
जनक हुए गीत के माने में विशेष उत्कष्ठित है, न कि मनरूप मग के मोहक दूसरे शृङ्गार-आदि गीतों के गाने में उत्कष्ठित है। जो सुदत्त महाराज युद्ध भूमियों में दुग्न से भी जीतने के लिए अशक्य शत्रु संबंधी हाथियों के गण्डस्थली के छेदने में विशेषरूप से शिकार व्यसन के पराधीन है किन्तु दूसरे निरपराधी जंगली मगों की शिकार करने रूपी ब्यसन के पराधीन नहीं है। जो सुदत्त महाराज घुम्नाङ्गणरूपी ( शतरज खेलने की भूमि ) पर चरगम ( गुप्तचरों का भेजना ), व गतिबन्धों ( शत्रु-शिविर के चारों ओर घेरा छालना) से शत्रुओं की नतुरङ्ग सेनाओं ( हाथी व घोड़े-आदि ) के विषय में विशेषरूप से चूत-दुर्ललित (विजयश्री प्राप्त करने की इच्छा के कारण विचार-हीन ) है परन्तु राजवंश को फलडित करनेवाले दूसरे चतुरङ्गों ( शतरञ्ज व पासों मी क्रीड़ाओं) में चर (दूसरे स्थानों में घोड़े आदि का प्रवेश) व गम (दूसरे स्थान में घुसना एवं गतिबन्ध । दूसरे शतरज संबंधी घोड़े आदि को चारों ओर से घेरना) से विशेषरूप में धुतदुललित ( जुआ खेलने का अनिवारल) नहीं है ( जुआ खेलने का त्यागी) है। जो सुदत्त महाराज चार समुद्ररूपी मणिमेखला-शालिनी पृथिवी रूपी स्त्री में विशेषरूप से आसक्त हैं परन्तु दूसरी बेन्याओं में, जो कि शरीर धर्म व धन को नष्ट करनेवालो हैं, आसक्त नहीं हैं।
जो सुदत्त महाराज ऐसी गवरूपी अग्नि से भयङ्कर शत्रुओं के, जो कि अनौखें संग्नाम में स्वीकार की हुई बिजयरूगो बायु से वृद्धिंगत हुई है और जो वीर योद्धारूपी कुटजों ( शक्रतरओं) के बन को भस्म करने में दक्ष है, समस्त यशों के पान करने में हो मद्यपो (नशेवाज) हैं परन्तु इसलोक व परलोक संबंधी सुख को नष्ट करने में गर्विष्ठ दूसरे भधों--शरावों-से मद्यपी नहीं हैं। जिस भूदत्त महाराज के सहमा जगत के ऊपर उपद्रव करने म दंत्यप्राय मनुष्यों के लिए कठोर दण्ट देने के चित्त-मनोरय विशेषरूप से है, परन्तु भ्रकुटिलता के क्षेपमात्र से अपने अधीन हुए सेवकों के लिए कठोर दण्ड देने के चित्त-मनोरथ नहीं है। जो संग्राम-क्रीड़ा में विशेष उत्कण्ठित हुए शत्रुओं के प्रति संग्राम के लिए मुद्धभूमि पर आने के अवसरों पर आंत कठोर भाषण करने में विशेष निपुण है परन्तु सामने देखने मात्र से विनययुक्त हुई प्रजाओं के प्रति अति कठोर भापण करने के व्यवहार में निपुण नहीं है। जिसे समस्त पृथ्वीमण्डल का विनाश करने से उत्पन्न हुए गय से भयङ्कर शत्रुरूपी कालसों से रक्षा किये हुए कीर्तिरूपी कुलधन के अपहार की विशेष लुब्धता है, परन्तु अपनी उन्नति में स्नेह करनेवाले हितषियों से संचय किये हुए प्रशस्त धन का अपहरण करने में लुब्धता नहीं है । युद्धभूमि, हाथियों के पकड़ने की भूमि व हाथियों के पकहने को खाई, इनमें शत्रुरूप शल्लको वृक्षों के भङ्ग का लोभ दिखाकर, जिस सुदत्त महाराज