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या स्तिलक चम्पूकाव्ये
प्रवरेषु विशांपतियों न विवेश कीनाशनगरम् मं चेयं निसर्गचपला न तत्याज लक्ष्मीः, येन समं जगामेयं भूमिः स्न
ह् प्रयत्नपरिपालितोऽपि स्लोकः यस्मादवरु न जन्मजरामरणवर्गेण, यस्य न वमूत्रुराधिराक्षस्यः, यस्मिन्न लेभिरे गोचरतां संसारारणिसमुत्यानोल्लोलाः प्रायेण दुःखानसम्बालाः' इत्यनादीनखोपदेशविशीर्यमाणमोहपाशस्य विततमप्यात्ममो fare परलोकावलोकन प्रतिसर मिवाकलपतः 'हो सरसापराधगोचरखेचर, एकवा प्रणामोन्मुख सेवंवानसीमुखमण्डनघनघुण रसलोहित करे विकच निचुसमज रोजालशेष रितशिरीषक सिन्दूरपरागपि 'रितसुरवारण कुम्भस्थाले हरिरोहिणीषणितगगनग मनाङ्गनाकपोलशालिनि प्रवालाङ्करोत् करनि कोर्णविषचक्र वाले रविकान्तगिलासंचारित नर्षात नि तमिरजस्वलता पुरस्तावसरम्तोषु नक्षत्र पङ्क्तिषु रक्ताम्यरशोभामिव बिनाणे अनवरतनचरसहचरीकविकीर्यमाण रक्तचन्दनब्रच द्विगुणशोणिनि सति सवितृबिम्बे नृपतिमनोदाहरण कयास्विव विशालतां गतासु विक्षु, निर्मुक्तनो निचोलेटिव
प्रविष्ट नहीं हुआ ? कौन ऐसा नरेश है ? जिसे इस स्वभावचञ्चला लक्ष्मी ने नहीं छोड़ा ? कौन ऐसा पृथिवीपति है ? जिसके साथ इस पृथिवी ने प्रस्थान किया ? कौन ऐसा राजा है ? जिससे प्रयत्नपूर्वक भरण पोषण किये हुए भी स्त्री समूह ने द्रोह नहीं किया ? कौन ऐसा नरेश्वर है ? जिससे जन्म, वृद्धावस्था व मरण लक्षणवाला दुःख समूह उत्तीर्ण हो गया ( दूर हो गया ) ? कौन ऐसा भूमिपति है ? जिसको मानसिक व्यथाएँ रूपी राक्षसियां उत्पन्न नहीं हुई ? कौन ऐसा भूपति है ? जिसके ऊपर प्राय: करके दुःखरूपी अग्नि की ज्वालाओं ने, जो कि संसाररूपी अरणि ( दशमी काष्ठ ) से उत्पति के कारण विशेष लपटोंवाली है, अधिकार नहीं जमाया ? जो अपनी विस्तृत राज्य सम्पत्ति को भी परलोक (स्वर्गादि ) दर्शन के लिए यवनिका ( नाटक का परदा ) सरीखी निश्चय कर रहा है, कोट्टपाल ने प्रविष्ट होकर एक चोर को, जिसने नगर के नाई के प्राण लेकर उसका समस्त धन अपहरण किया था, लाकर दिखाया ।
किस बेला में कोट्टपाल ने चोर दिखाया ? एक समय जब प्रभात - वेला में सूर्यविम्ब निन्नप्रकार का हो रहा था। जिराकी किरण नमस्कार करने में उद्यत हुई देव-तापसियों ( अहम्थती आदि) के मुखों को ( अलङ्कृत - सुशोभित करनेवाले घने कुङ्कुमरस-सरीखीं लालिमायुक्त है। जिसने पर्वत संबंधी शिखर के विस्तृत पाषाण विकसित कदम्बमञ्जरी के रक्त पुष्प-समूह-सरीले मुकुट-युक्त किये हैं । जिसने ऐरावत हाथी के गण्डस्थल सिन्दूर के चूर्ण सरीखे पिञ्जरित ( पोतरक्त ) किये है | जो हरिरोहिण ( लालचन्दन ) से लाल किये हुए विद्यारियों के गालोंसरीखा शोभायमान हो रहा है। जिसने दिशासमूह, प्रवाल को अङ्कर श्रेणियों से प्राप्त किये हैं। जिसके द्वारा सूर्यकान्तमगियों को शिलाओं पर अग्नि-ति (बत्ती) संचारित की गई है। जब नक्षत्र- श्रेणियाँ जिनमें अलङ्कार से स्त्रियों का आरोप किया गया है । अन्धकार से रजस्वला ( अन्धकाररूपी धूलि-युक्त व पक्षान्तर में पुष्पवती ) होने से सामने से भाग रही थी -- अस्त हो रहीं थीं तब जो (सूर्यविम्ब) उनकी रक्ताम्बर (लाल आकाश व पक्षान्तर में लाल साड़ी) सरीखी कान्ति धारण कर रहा है। जिसकी लालिमा निरन्तर विद्यावरियों के हस्तों द्वारा फेंके हुए तरल रक्तचन्दन से दुगुनी हो गई है। इसी प्रकार जब दिशाएं वैसी विशालता ( मृग, पक्षी, या वृक्ष विशेषों से युक्तता ) को प्राप्त हो रहीं थीं जैसे राजाओं की यशोगान कथाएँ विशाल (विस्तृत या प्रसिद्ध ) होती है । जब प्रकट आकारवाले महलों के शिखर ऐसे मालूम पड़ते थे, मानों - उनका अन्धकाररूपी अंगरखा हट गया है ।
१. पिअरस्तु पीतवनेश्वभिद्यपि पिञ्जरं शातकुम्भे ।'
२. 'हरिरोहण' इति ह. लि. ( क ) प्रती पाठ 'हरिचन्दनं' |
३. वर्गात्रानुलेपित्यां दशायां दीपकस्य च । अपि मेंषज निर्माणनयनाञ्जनलेखयोः ॥ १ ॥