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पञ्चम आश्वासः
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म खल प्रभूणां देशनामिय तोषरोषयोः रोधकेषु शुभमशुभं या फलमसंपाच तदेव प्रत्यावर्तले शासनम् । तदाकर्णणन्यदेव तव तल्लोकावाप्तेः कारणम् ।
तपाहि-अस्ति खल सकलसांसारिकालोपफरणरत्नाकराबनिसगेषु कलिङ्गेषु द्विरदमदामोवमन्दकन्दरोदरपरिसरस्पषनपानपरमधुकरावलानीलमणिमेखलाडिएसनितम्बवसुंधरस्य महेन्द्रमहोघरस्याधिपतिः संजासमेविनारतिचित्तोऽपि द्विजातिस्तूयमानवृत्त अकारणरोषप्रमत्तोऽपि निःशेषशिष्टाचारप्रवृत्तः सुबत्तो नाम राना।
यस्य विभवामिद्धिस्सकलोकसंतपंणाय, विद्याधर, विमानोपचरणाय, शौर्यपर्यायः धारणागतरक्षणाय, राज्यावर्जनपरिणतः प्रजापरित्राणाय, प्रभुत्वावलम्बनं समाश्रितभरणाय, क्षात्रचरित्रवृष्टिः परार्थकरपाय, देवताप्रसावन सत्पुरुषपरवितरणाय, साहसोसालानुष्ठान महामुनिप्रत्यूहनिम्हणाय, वीरविक्रमः सापकसा वसापहरणाय, सात्विकत्यमादिअत्रियपतषमनिर्वहणाय।
संतुष्ट होने पर शुभफल व रुष्ट होने पर अभ फल उत्पन्न किये बिना, तत्काल में ही शाप देने के अवसर में ही नहीं लोटती। अर्थात्-जैसे देवता भक्तों पर सन्तुष्ट हुए शुभ फल देते हैं व रुष्ट हुए अशुभ फल देते हैं वैसे ही राजा लोग भी सेवकों पर सन्तुष्ट हुए शुभ फल व रुष्ट हुए अशुभ फल देते हैं। अतः जो मैं रुष्ट हमा तुझे पाप दे चुका है उसके अनुसार तुझे अशुभ फल अवश्य भोगना पड़ेगा। अतः तू मुन, पुनः विद्याधर-लोक को प्राप्ति का सारा दूसरा ही तुझे माता, समी बात का निरूपण करता है
समस्त सांसारिक सुखों को आधार-भत रत्न-खानियों की भूमि के संगम वाले कलिज देशों में 'महेन्द्र' नाम के पर्वस का, स्वामो ऐसा सुदत्त नाम का राजा है। जिसकी नितम्बभूमि ऐसी भ्रमर श्रेणीरूपी नीलमणिमयी मेखला । कटिनी) से चिलित है, जो कि हस्तियों के मद ( दानजल ) को सुगन्वि से आ हाई गुफाओं के मध्य भागों पर चारों ओर संचार करती हुई वायु के आस्वाद में लम्पट है। जो संजातमेदिनीरति वित्त ( मलेच्छ स्त्रियों के साथ भोगविलास के मनवाला) हो करके भी द्विजातिस्तूयमान वृत्त ( ब्राह्मणों से स्तुत्य आजार वाला) है। यहां पर विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जो म्लेच्छ-भार्याओं में अनुरक्तचित्त होगा, वह ब्राह्मणों से स्तुत्य आचार वाला कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि 'जो मेदिनीरतिचित्त ( आसमुद्रान्त पृथिवी के पालने के मनवाला ) है और अपि ( निश्चय से ) जो द्विजातियों ( तपस्वी ब्राह्मणों से प्रशंसनीय चरित्रवाला ) है और जो अकारणरोपप्रमत्त ( निष्कारण कोध करनेवाला ) होकर के भी निःशेषशिष्टाचार प्रवृत्त ( समस्त मिष्टाचारों में प्रवृत्त) है यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो निष्कारण क्रोध करनेवाला होगा, वह समस्त शिष्टाचारों में प्रवृत्त हुआ कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अक-आ-रणरोपप्र-गत्त है। अति-जो अकुत्सित व चारों ओर से किये हुए संग्राम-कोप के कारण प्रकर्षरूप से हर्ष को प्राप्त हुआ है, जिससे जो समस्त शिष्टाचारों में प्रवृत्त है !'
जिस सुदत्त राजा को धनवृद्धि याचकजनों को भली प्रकार संतुष्ट करने के लिए है। जिसकी शास्त्रचतुरता विद्वज्जनों की पूजा-निमित्त है। जिसकी शूरता का अनुक्रम शरणागतों के प्रतिपालन-निमित्त है। जिसका राज्य का उपार्जन स्वीकार प्रजालोक की रक्षा के लिए है। जिसके सामर्थ्य ( शक्ति ) का आश्रयण सेवक लोगों के पोषण के लिए है। जिसका क्षतत्राण लक्षण-वाला क्षात्र ( क्षत्रियधर्म ) एवं उसके आचार की प्रवृत्ति दूसरों के प्रयोजनों के पोषण के लिए है। जिसका देवी का प्रसन्न करना सत्पुरुषों के लिए वर ( अभि
१. विरोधाभासालंकारः।