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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
पुनरहो कविलोकपजविकास भास्कर, सौजन्यरत्नाकर, अस्ति मलु तेष्वेव त्रिवि निवासःखितकिवदन्तीषु अन्तषु इमणिमेखलेव पद्मावतीविलासिन्याः जलकेलिवोधिकेय माल्दवानीपालविलासिनीनाम् निरथोत्सविता केव भुजङ्गमलोकस्थ, वरणमालेव मागंनहीषराणाम्, मुक्तावलीय मेदिनीदेवतायाः, कीर्तिवंजयन्तीव प्रभवभूषरस्य सैकसारणिरिव सिन्धुरत्नाकुराणाम् दशरसृष्टिरिव व जगत्प्रसाधनमतोनां प्रजापतीनाम् भोगवतीष पद्मषिष्ठता भुजङ्गांकोचिता च राज्यलक्ष्मीरिव कुवलयोपगता द्विजभोगभूता च, कामनयोरिव संवरप्रचुरा पुनिजनगोबरा व सीते लक्ष्मणानुगता रामानविता] घ, भारतकयेव घृतराष्ट्रावसाना जातव्यासाधिष्ठानाच आस्फूर्जितमूतिरिव कान्तावलोकना प्रसाचितबलि संताना च. सुधासृष्टिरिव कुमुदावहा विहितवेवमहा च विपणियथिरिव सौगन्धिकावसया ग्राहकमउपतिसनाभा च सफल. कल्लोलकलशाभिषेकतोषितोपान्साथ माथ यविप्रा सिप्रा नाम नयी ।
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इसके बाद (सेही व संभव के वर्णन के वाद ) कवि समूह रूपी कमलों को विकसित करने के लिए श्री सूर्य- सरीखे एवं परोपकाररूपी अमुल्य माणिक्य की खानि ऐसे हे मारिदत्त महाराज ! देवों के योग्य वृत्तान्त वाले उन पुर्वोक्त अबन्ति देशों में ऐसी 'सिप्रा' नाम को नदी है। जो ऐसी मालूम पड़ती है मानों-उज्जयिनी नगरीरूपी कमनीय कामिनी को चन्द्रकान्त मणि की मेखला ( करघोनी) ही है। मानों- मालवदेश संबंधी राजाओं की रानियों की जलकोड़ा करने की बावड़ी ही है। मानों पाताललोक संबंधी नित्य महोत्सवों की पताका हो है । मानों— मार्गपर्वतों की बरमाला ही है । मानों पृथिवोरूपी देवता की मोतियों की माला ही है । मानों इसको ( सिप्रा को ) उत्पन्न करनेवाले पर्वत को कीर्तिपताका ही है। जो मानों-समुद्र संबंधी रत्नाकरों को सिञ्चन करने वाली कृत्रिम नदी ही है। मानों पृथिवीमण्डल की व्यवस्था करने की बुद्धिवाले राजाओं की बाण सृष्टि ही है। जो वैसी पद्माधिष्ठित ( कमल-मण्डित ) व भुजङ्गलोको चित ( कामी पुरुष समूह के योग्य ) है जैसे अहिपुरी ( नागलोक ) पद्माधिष्ठित ( पद्म नाम को नागदेवता से युक्त ) जङ्गलको चित (सर्प समूह के योग्य) होती है। जो वैसी कुवलयोपगता ( चन्द्रविकासी कमलों से मण्डित ) एवं द्विजभोगभूता (पक्षियों के भोगने योग्य ) है जैसे राज्यलक्ष्मी कुवलयोपगता ( पृथिवीमण्डल - मण्डित ) एवं द्विजभोगभूता ( ब्राह्मणों की भोगभूत ) होती है। जो वैसी संवर- प्रचुर ( जल-बहुल ) व मुनिजनगोचर (तापमपक्षी-युक्त ) हैं जैसे वनलक्ष्मी संवरप्रचुर (शृंगल सहित मृग आदि चतुष्पद जौवों से बहुल अथवा मानव-निरोध सहित ) तथा मुनिजनगोचर ( दिगम्बर साधुओं के गोचर ) होती है । जो वैसी लक्ष्मणानुगत ( सारस पंक्ति सहित ) व रामानन्दित ( स्त्रियों को आनन्दित करने वाली ) है जैसे सोसा ( जनक राजा की पुत्री), लक्ष्मणानुगत ( लक्ष्मण से अनुगत ) व रामानन्दित ( श्रीरामचन्द्र से आल्हादित ) होती है । जो सो धृतराष्ट्रावसाना ( दोनों तटों पर हंसों वाली ) एवं जातव्यासाघिष्ठाना ( विस्तार के मूल को उत्पन्न करने वाली ) है जैसी भारतकथा ( महाभारत शास्त्र ) धृतराष्ट्रावसाना ( धृतराष्ट्र के मरण वाली ) एवं जातव्यासाधिष्ठाना ( व्यास से उत्पन्न हुए पीठबन्धवाली ) होती है । जो वैसो लोकना ( मनोहर दर्शनबाली ) व प्रसाधितबलिसंतान ( पूर्ण किये हुए पूजासमूह वाली ) है जैसी चन्द्र मुर्ति कान्तावलोकन ( सुन्दरियों के दर्शन सहित ) और प्रसाधितवलिसंतान ( वलि नाम के दावविशेष को वश में करनेवाली ) होती है । जो वैसी कुमुदावहा ( श्वेत कमलधारिणी) व विहिता देवमहा (वि-हिता-पक्षियों के लिए हित करनेवाली ) और देवमहा ( राजाओं के उत्सव वाली ) है जैसी अमृतसृष्टि कुमुदावहा ( पृथिवी में हर्ष उत्पन्न करनेवाली } व विहितदेवमहा ( जिसमें देवों की पूजा उत्पन्न की गई है ) होती है । जो वैसी सौगन्धिकावसया ( लालकमलों व कारों (कमलों ) के निवास-युक्त ) है एवं ग्राहक मऊ-पति-सनाथा ( ग्राह ( मकर आदि), कमठ ( कछुओं ) एवं पक्षियों से सहित ) है जैसी दुकानों को श्रेणी सौगन्धिकावसथा ( सुगन्धि वस्तु वेंचनेवालों के स्थान वाली ) व ग्राहक