Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पञ्चम आश्वासः
११७ अन्यत्र कुरुते जन्तुर्यत्सुखं पुःखमेव वा । तदुपाबीजवक्षेत्रे भूयः फलववात्मनि ॥२३॥ इति ग्यापाद्य थाहं पुरा जन्मनि शिखावलपर्यायस्तेनाग्निजन्मना स्वकीयवंष्ट्राककचकवरयंमानतां मीतातर्थनमपि कृष्णत्वं शरिष, फुटिलता स्त्रीन्यः, क्रौर्य कृतान्तात्, विश्वसद्धि मसुरेग्यः, विषारपत्वं जलधेः, पिशितप्रियवं यातधानेभ्यः, परोपावं च दुर्जनेभ्य: समादायासादितसरीसृपाकारं वामविपरप्रविष्टायशरोरं चालादाकृष्य पुरीतत्प्रतान मिष मेचिनीकुर्राष्ट्रकायाः, लाग़लमिव महीसिंहिकायाः, मूलमिवानन्तालतायाः, मृगालमिय भूमिकालन्याः, वेणिवामिव समाराक्षस्पाः, पौनःपुन्यप्रवृत्तोत्रुणमहारजरितवदनमुत्कृत्यमानमिवाधरायाम, उम्मसन्तमिव क्षतजेषु, स्फुरन्समिष तरसेषु, टमन्तमिष सिराम, स्फुटन्तमिवास्थिषु, विवर्तमानमिवारत्रेषु, समीपतरकबम्बस्तम्बशायिना प्रबलजाङ्गलकवलाविलगलगुहाघोरघुरघुरारप्रतियोधितेन गतमेव श्लोकं तव जन्मनि सफलयता तराणा भक्ष्यमाणस्तेन पुषवाकुना सम. कालमेघाहं परामुरभघम् । प्रदेशों को खोदने का इच्छुक था। 'यह जीव, दूसरे प्राणी में जो कुछ भी सुख अथवा दुःख उत्पन्न करता है, वह सुख व दुःख अपने जीव में वैसा प्रचुर फल देनेवाला ( अधिक सुख-दुःख देनेवाला ) होता है जेसे खेस मैं बोया हुआ बीज प्रचुर फल देने वाला होता है.२शा
इस न्याय से जो पूर्वजन्म (मोर की पर्याय) में मयर-पर्याय के धारक मुझे उस चन्द्रमति के जीव कुत्ते ने अपनी दादरूपी आरा से मार डाला था वैसे ही मैंने ( यशोधर के जीव सेहो ने ) इस चन्द्रमत्ति के जीव सपं को भी अपनी दाढरूपो आरा से मृत्यु में प्राप्त किया ( मार डाला )। कैसे चन्द्रमति के जीव सर्प को मैंने मारा? जिसने मानों-दानि नामक ग्रह से कृष्णता ( कालापन), स्त्रियों से कुटिलता ( वकता ) व यम से क्रूरता प्राप्त करके सर्प को आकृति प्राप्त की थी। जिमने असुरों से बृप-विध्वंसवुद्धि । मूषिक-विनाश-बुद्धि पक्षान्तर में धर्म-नष्ट करने की बुद्धि ) को ग्रहण करके सर्पाकार प्राप्त किया था। जिसने समुद्र से विषाश्रयत्व ( मुख में पहर को सुरक्षित करना पक्षान्तर में विष का स्थान ) प्राप्त करके साकार प्राप्त किया था। जिसने राक्षसों से मांसप्रियता और दुर्जनों से परोपद्रव ( दूसरों को दुःख उत्पन्न करना) प्राप्त करके सर्प की आकृति प्राप्त को थी। जिसका अर्धशरीर वॉमी के मध्य में प्रविष्ट हुआ था। जो मानों-पथिवीरूपो हिरणी को नसों की श्रेणो ही है। अथवा लोकभक्षक होने से मानों-पृथिवीरूपो सिंहनी की पूछ ही है। अथवा-मानोंपृथिवीरूपी लता का मूल ही है। अथवा माना--पृथिवीपी कमलिनी का मृणाल ही है। अथवा मानोंपृथिवीरूपी राक्षसी को मुंथी हुई केशयष्टि ही है। ऐसे सांप को मैने । यशोधर के जोब सेहो ने ) बॉमी से जबर्दस्ती खींच कर मार डाला। जिसका मुख वार-बार उत्पन्न हुए उन्नत फणों के आघातों से जर्जरित (क्षीण ) हो गया है। जो अपनी त्वचा के विषय में फासा जा रहा सरीला एवं स्वनों के विषय में ऊपर उछलता हुआ-सा, माँस के विषय में चमत्कार करता हुआ-सा तथा सिराओं के विषय में टूटता हुआ-जैसा, तथा हडियों के बारे में कट-कट गाब्द के समान आचरण करता हुआ-सा व आंतों के विषय में भीतरी शरीर को बाहिर प्रकट करता हआ सा प्रतीत हो रहा था। इसके बाद मुझे ( घशीधर के जोव सेही को ) प्रस्तुत साँप ने, जो कि पूर्व-कथित लोक को उसो जन्म में सत्यता में प्राप्त कर रहा था। जो वाँमी के विशेष समीप में वर्तमान कदम्ब वृक्ष को वने पर शयन कर रहा था एवं जो उत्तम सर्प-मांस के ग्रास से भरी हुई गलेरुपी गुफा के भयानक घुघुर ( अव्यक्त ) शब्द द्वारा जमाया गया था, भक्षण कर लिया। उसी साँप के साथ मैं ( सेही ) एक समय में ही काल-कवलित हुआ। अर्थात्--हम दोनों ( यशोधर का जीव-सेहो चन्द्रमती का जोब साँप ) काल-कवलित हुए। अर्थात्-मैंने साँप को खाया और सांप ने मुझे खाया।