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यशस्तिलकचम्पुकाव्ये अपि च । ब्रह्मानितिमण्डाला हरिकुलवालोलशलस्थलो स्थाणुस्थानविसंस्थलापि समभूचित्र तथापोवृदयो ।
सव्याधा समालया समदनोत्सा व सर्वाटयो फो नामवमिहाबलः सह ललासो प्रदेषामपि ॥२२॥
तत्र चिलचिकिमाणकलोचनायो बाढमवगाहमध्यमावस्थानायामेणान्वेषणघिषणनिषादपरिषत्सवापरषाव. रस्सलमखरसेवलम्जासिलखुरायामनेकमृगङ्गासंघट्टोन्मुष्टप्लोमत्तया निस्त्रियानिशातशाणाकारायामिव परुषतरतनुपपत्या तमाविधेनव पृषतेन गर्भावासविषयता नीता, पुनरकाण्डचण्हतडिण्डसंघट्टमयप्रभावायपरिपूर्णविषय एवं प्रसवरुपये लावास्मलाममात्रः, सविमाः शून्यस्तग्यस्तनतयानुपान्ताशनाशयः, पामाङफुरेषु च तृप्तिमलभमानः, पवनाशानापानाधयाशक्तया शशिरःप्रदेशान्विषाणमण्डलेनोविक्षनिषुः, (पलाश वृक्षों से चारों ओर विषम प्रदेश वालो ) है एवं जो निश्चय से सव्याधा ( बहेलियों से व्याप्त ) है। जो हरिकुलव्यालोलशैलस्थली ( यादवघंश से मनोज्ञ रैवत पर्वतस्थली) होकर के भी समवत्सवा ( मधुदैत्य के उत्सवन्सहित ) है । यह मो विरुद्ध है। क्योंकि जो यादववंश से मनोज्ञ रैबतपर्वत-स्थली होगी, वह मधुदैत्य के उत्सव से व्याप्त को हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि जो हरिकुलव्यालोलशैलस्थली ( सिह-ममूहों से चञ्चल पर्वत स्थल-शालिनी ) है और निश्चय से जो समघत्सवा ( मधु ( शहद या वसन्त ) के उत्सव वाली है। जो स्थाणुस्थानबिसंस्थुला ( श्री महादेव के निवास से शिथिल ) हो करके भी समदनोत्सर्गा ( कामदेव की सृष्टिसहित ) है, यह' मी विरुद्ध है; क्योंकि जो श्री महादेव की स्थिति से शिथिल होगी वह कान्दर्प की सृष्टि-साहित कैसे हो सकती है ? क्योंकि कन्दर्प ( कामदेव ) तो श्रीमहादेव जो द्वारा पूर्व में भस्म कर दिया गया था, इसका समाधान यह है कि जो स्थाणुस्थानविसंस्थुला ( स्थाणुओं-टूठ वृक्षों की स्थिति से व्याम ) है और निश्चय से जो समदनोत्सर्गा ( आट वृक्षों की सृष्टि-सहित ) है। अब उक्त बात को 'अर्थान्तरन्यास' अलंकार से पुष्ट करते हैं। इस संसार में इसप्रकार कौन पुरुष खललोक ( दुष्टलोक ) से रहित है ? क्योंकि जन्न' इन ब्रह्मा, विष्णु व महेश्वर का भी दुष्टों ( बहेलियों-आदि ) के साथ निवास वर्तमान है ॥२२॥
प्रसङ्गानुवाद-हे मारिदत्त महाराज ! उस पूर्वोक्त वन में में ( यशोधर का जीव ) मयूरपर्याय के बाद विशेष कठिन शरीरवाली सेही (सेही को स्त्री के गर्भावास में बैसा ही कठिन शरीरवाला, लैगढ़ा व रगड़े हुए रुएं बाला सेही रूप से आया ! मैं, कैसी सेहिनी के गर्भावास में आया ? जो दुषित व निन्द्य केवल एक ही नेत्रवाली ( कानी ) थी। जो विशेष संकीर्ण उदरस्थान प्राप्त करने वाली थी ! मुगों की अन्वेषण बुद्धि से निकट दौड़नेवाले बहेलियों के समूह से गमन-भङ्ग के कारण उत्पन्न हुए विशेष कष्ट से जिसके चारों खुर लँगड़े हो गए हैं। अनेक मृग-शृङ्गों की टक्कर से रगड़े गए मैंओं के कारण जिसको आकृति खड्ग को तीक्ष्ण करनेवाले शाण-सरीखो ( ककश शरीर वाली ) थी। हे राजन् ! फिर मयूर-मरण के बाद उत्पन्न हुआ मैं ( यशोधर का जोव--सेही) बिना अवसर के ( वर्षाकाल के विना भी ) विशेष शक्तिशाली बिजली दंड की टक्कर से उत्पन्न हुए भय के प्रभाव से थोड़े हो महीनों में उत्पन्न हुए प्रसनकाल में केवल अपना शरीरलाभ ही कर सका । अर्थात्-एक दिन में ही मर गया क्योंकि मेरी माता सेहिनी का स्तन दुग्ध-शून्य होने से मेरी भोजन की इच्छा शान्त नहीं होती थी ( मैं भूला ही रहता था)। छोटी-छोटी हरी घास से तृप्त न होकर में सौ के भक्षण के चित्त का अभिप्राय वाला होने में दन्तश्रेणी से बॉमी के शिखर
१. यथासयार्थान्तरन्यासालंकारः। मोट-उस काग्य में विरोधाभास अलंकार भी है।
--सम्पादक