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यशस्तिलकधम्पूकाव्ये इति सत्या नयन्निव तो विलासिनीविलासहंसावतारसरसीमेकानसीमनुप्राप्य तस्यामेवोभयतीरावतीर्णतमालतरुपतितप्रसूनपरागएरवशवंगायामापगायां प्रतिपन्नपयोवगाहविटणः, अहिनकुलबजातिजनितामार्शेत्कर्षान्धान्तःकरणः, यशोमति महाराजयाजिसननितदौजन्यप्रकरणः, तन्नृपतिनिधिष्टनकटिकानोककरकोलितचतुमचरणः, प्रस्फोटनस्फारमावतस्फुरस्खदिराङ्गानिकरपूरितकरणः, समन्तावभीषयाशुशुक्षणिक्षसक्षिप्यमाणभारबारिवर्षणः, कर्णकटघोरारवरसनशल्पितपुरदेवताविषणः, यूषणकपायोल्मणालन्दकोदकावानविनिरुतनिखिलगोवरगणः, नरकःलवेवनावप्पसहयथावेगमातङ्कसङ्गमनुभम्मिरंमवदाहगृषिविटपः पादप इव कथाओषतामवाप, तथापि तया जागसमक्षणाक्षिप्तपित्तयामृतमतिमहादेव्या प्रत्यहं धगद्धगिसीधीधाममध्यभटित्रीकृतफवारणायचरमाधिकरणां दशामशिक्षियम् ।
पुमरहो धर्मधारय, अस्ति खल्विदेव रत्नाफरमेखसिन्यमरलोकोप्तामनस्तम्भेनेय मेरुणालंकृतनाभिमणाले जम्मूलक्ष्मणि द्वीपे विजयार्थो नाम पर्वतः । यः
गन्धर्वालपर्धानकनिनवनवस्कंदराभोगरभ्यः स्वर्गस्त्रीगीतकान्ताटनिरमरतहरलाध्यशालालिपस्सिः ।
गङ्गातुनोत्तरङ्गोचलवनणुकणासारहाराभिरामः प्रोत्तालानर्तनोतिनंट इव विजयावनी प्रश्वकास्ति ।।४५।। सुख-दुःख भोगना लिपि-बद्ध किया है। ॥ ४४ ।। तदनन्तर पूर्वक्ति चन्द्रमती के जीव भंसा ने जब उसी सिप्रा नदी में । जिसमें बह पूर्व में शिशुमार मकर हुबा था, जिसका वहाव दोनों तटों के नोचे की और स्थित हुए तमाखू के वृक्षों से गिरी हई गुष्य-पराग के पराधीन है. जल दिलंदन के लिए प्रवेश किया तय सर्प-नोले सरीखे जातिस्वभाव से उत्पन्न हुई क्रोध की तीव्रता से विवेक-शून्य मनवाले उस भंसे ने यशोमति महाराज के घोड़े का मृत्यु-प्रस्ताव भली प्रकार उत्पन्न विया (प्रस्तुत घोड़े का बध कर दिया )। जिससे यशोमति कहाराज द्वारा आज्ञापित किये हुए किंकर-समूह के हाथों में उस भैंसे के चारों पैर कोलित ( कोले य सांकलों द्वारा निश्चल ) किये गये। जिसके शारीरिक अवयव सूपों की प्रचुर वायुओं से प्रदीप्त किये जानेवाले खदिर वृक्षों के अङ्गार-समूहों से आच्छादित किये गए हैं। जिसके ऊपर सभी ओर से निरन्तर अग्नि के स्फुटित प्रहारों ( घावों ) पर नमक के जल की वृष्टि की जा रही है एवं जिसने कर्ण-कटु भयानक शब्दों के आरटन से पुर देवताओं की बुद्धि दुःखित की है तथा तृपा से सोंट, मिर्च व पीपल के चूर्ण के काढ़े से उत्कट हुए मृत्ति का कुण्ड में भरे हुए जल-ग्रहण से जिसके परिचम द्वार से समस्त मोवर श्रेणो निकली है, ऐसा वह भैंसा ऐसी दुःखसंगति को भोगता हुआ, जिसका दुःख-वेग नरक की दुःख वेदना से भो असह्य है। अतः वह ऐसे वृक्षा-सरीखा होकर, जिसकी शाखाओं का विस्तार वज्ञाग्नि की दाह से भस्म किया गया है, मृत्यु को प्राप्त हुआ।
हे राजन् ! उसो प्रकार मैंने ( यशोधर के जीव बकरे ने ), जिसका खुर-सहित एक पैर मांस-भक्षण में आसक चित्तवाली उस अमृत मति महादेवी द्वारा निरन्तर जाज्वल्यमान प्रदीप्त चुले के मध्य पकाया गया है ऐसा हो कर मरणावस्था प्राप्त की । फिर भी-भैसे व बकरे की पर्याय-कथन के वाद- धर्मप्रवर्तक मारिदत्त महाराज ! जामुन के वृक्ष से उपलक्षित एवं लवण समुद्ररूपी मेखलावाले इसी जम्बूद्वीप में, जिसका नाभिमण्डल ( मध्यवती विस्तृत प्रदेश ) स्वर्गलोक को थामने के लिये स्तम्भ-सरोखे सुमेरुपर्वत से सुशोभित है, ऐसा विजयाचं नाम का पर्वत है।
जो नट-सरीखा शोभायमान हो रहा है। जो ऐसे गुफाओं के परिपूर्ण विस्तारों से मनोश है, जो कि देवगायकों के महान् उत्सव-नगाड़ों की ध्वनियों से प्रतिध्वनि कर रहे हैं। जैसे जहां पर नट नृत्य करता
१. उपमालकारः ।