Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पञ्चम आश्वास:
१०१ इव बलबल, काकुरस्यकथावतार इव कपिकुलविलुप्यमान पलाशप्रसरः सत्रमण्डप इव द्विजराजविराजितः पर्जन्यागम इवइयामलिताखिलविलयः, धन्यः प्रस्तार इव पावप्रबन्धावन बचः क्षितिपजययात्राकाल इव मुच्छायपत्त्रः काननधीप्रसातितपत्त्राभोग इव सुयुमण्डलः, पुण्योदयश्विस इव संपादित फलपरम्परः शरणागतसंभावनाविव दूरतरमभ्युत्थितः प्रार्णकपरिरम्भसंभ्रमाविव प्रसारितशास्त्रमञ्जलिः सिधालय इवानकशस्त्रिवशदमितोपयाचितमिष्टपश्चाङ्गुलावद्ध बुष्मः कुबेरपुरनिवास इव प्ररोहबावक्षयकुलकुमारः, पशुपतिरिव ग्रामधिष्ठितः समोपत रविनायकश्च नारायण इव धनमालाविभूषणः परिकल्पित भुजगशयनदच पितामह व वयःपरिणतः
निर्लज्जता के कारण जहाँ पर पक्षियों के बच्चे व्याकुलित हो रहे हैं । जिसने अनेक वर्णों (श्वेत व पीतआदि) की उत्पत्ति वैसी प्रकट की है जैसी ब्रह्मा अनेक वर्णों (आह्मणादि) की उत्पत्ति प्रकट करता है। जो बैसा दलबहुल (पत्तों से प्रचुर ) है जैसे समस्त लोक की रचना का स्थान दलबहुल (कारण सामग्री की अधिकतायुक्त) होता है ।
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जो वैसा कपिकुलविलुप्यमान पलाशप्रसर है। अर्थात् जिसके पलाशों ( पत्तों ) का विस्तार या समूह कपिकुल्लों (वानर-समूहों से तोड़ा जा रहा है, जैसे रामायण का प्रवेश कपिकुलविलुप्यमान पलाशप्रसर होता है । अर्थात् — जिसमें कपिकुलों । सुग्रीव-जादि वानरवंशजों) से पलाशप्रसार ( रादास व्यापार) मारनेयोग्य होता है । जो वैसा द्विजराजों ( मुख्य पक्षियों) से सुशोभित है जैसे दानशाला द्विजराजों ( मुख्य ब्राह्मणों) से सुशोभित होती है। जो वैसा समस्त दिशा-समूह को नीलवर्ण-युक्त करनेवाला है जैसे वर्षाकाल समस्त दिशा-समूह को श्यामवर्णशाली करता है । जो वैसा पादप्रबन्धों ( जड़-समूहों द्वारा पातालभूमि को ब्याप्त करनेवाला है जैसे छन्दप्रस्तार पादप्रबन्धों ( अक्षरसंघात समूहों द्वारा पृथिवी को व्याप्त करता है । जो वैसा सुच्छापत्र | शोभनकान्तियुक्त पत्तोंवाला है जैसे राजाओं की दिग्विजय की यात्रा का अवसर सुच्छायपत्र ( तेजस्वी आदि वाहनों से युक्त ) होता हैं । जो वैसा सुवृत्तभण्डल (जिसका मण्डल - वर्तुलता अच्छी तरह निष्पन्न ! है, जैसे बनलक्ष्मीका मण्डित छत्रविस्तार सुवृत्त मण्डल | निष्पन्न वर्तुलाकार वाला ) होता है । जो वैसा संपादित फलपरम्पर (अनार आदि फलसमूह को उत्पन्न करनेवाला अथवा भेंटरूप से उपस्थित करनेवाला) है जैसे पुण्योदय का दिन सम्पादित फलपरम्पर, ( अभिलषित सुखरूपी फल-समूह की उत्पन्न करनेवाला ) होता है । दूर से पथिकों के सन्मुख थाया हुआ जो ऐसा प्रतीत होता था मानों - शरणागत पथिक आदि को प्रसन्न करने के कारण से ही दूर से उनके सन्मुख आया है । मानों - अतिथियों के आलिङ्गन के आदर से हो जिसने अपनी शाखारूपी हजारों भुजाएँ ( बाहू) फैलाई हैं। मानों अपनी सम्पत्ति को दान करने के विनय से हो जिसने संयुक्त पुष्प कलियों को नमस्कार अञ्जलि बाँधी है। जिसका मूलप्रदेश बैसा देवियों के अनेकवार की हुई प्रार्थनाओं एवं पिष्टपञ्चाङ्गुलों (टूटे हुए एरण्ड-वृक्षों ? ) घिरा हुआ है जैसे देवमन्दिर देवियों के नमस्कारों व पञ्चाङ्गुलों ( चूर्ण के हाथाओं ) से घिरे हुए बुत ( नीचे का भाग) से व्याप्त होता है। जपर शाखाओं पर बँधे हुए झूलाबों से झूलने में यक्ष-समूह के कुमार दक्ष ( निपुण ) हो रहे हैं, अतः जो अलका नगरी के मन्दिर सरीखा है । अर्थात् — जैसे अलकानगरी का मन्दिर जहाँपर बंधे हुए झूलाओं के तूलने में यक्ष समूहों के कुमार प्रवीण होते हैं। जो बैसा गो-अधिष्ठित ( पृथिवी पर स्थित ) व समीपतर विनायक ( जिसके समीप पक्षियों के नायक - गरुड आदि ) हैं जैसे रुद्र गो-अधिष्ठित (वृषभ अधिष्ठित व समीपतर विनायक ( जिसके समीप श्री गणेशजी वर्तमान हैं ) होता है । जो नारायण सरीखा वनमाला विभूषण ( वनश्रेणी को अलंकृत करनेवाला ) व परिकल्पित भुजगशयन ( जिस पर सर्पों द्वारा स्थिति की गई है ) है |
अर्थात् — जैसे श्री नारायण वनमाला - विभूषण (जालन्धर देत्यभार्या सहित ) और परिकल्पित भुजग